क्या आप जानते हैं कि भगवद गीता के अध्याय 2 (Bhagwat Geeta Adhyay 2) में केवल 72 श्लोक हैं, लेकिन इन श्लोकों में जीवन के 72 गहरे रहस्यों को समेटा गया है? हर श्लोक अपने आप में एक गहरा अर्थ और दिशा देने वाला है। यही वह अध्याय है जिसमें अर्जुन को आत्मा, कर्तव्य और जीवन के सच्चे उद्देश्य की सबसे महत्वपूर्ण शिक्षाएँ दी गईं।
भगवद गीता का दूसरा अध्याय (Bhagwat Geeta Adhyay 2), “सांख्य योग,” न केवल एक धार्मिक ग्रंथ का हिस्सा है, बल्कि यह आधुनिक जीवन के जटिल प्रश्नों के उत्तर भी देता है। इस अध्याय में अर्जुन की मानसिक दुविधाओं का समाधान करते हुए श्रीकृष्ण ने जो ज्ञान दिया, वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना महाभारत के समय था।
भगवद गीता अध्याय 2 (Bhagwat Geeta Adhyay 2) की महत्वपूर्ण शिक्षाएँ
इस डिजिटल युग में, जब हम हर रोज तनाव, अनिश्चितता और मानसिक उथल-पुथल का सामना कर रहे हैं, भगवद गीता ज्ञान का अध्याय 2 (Geeta Adhyay 2)हमें स्थिरता और मानसिक शांति प्राप्त करने की राह दिखाता है। यह अध्याय हमें सिखाता है कि कैसे अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए, मानसिक शांति बनाए रखी जा सकती है।
तो, अगर आप भी जीवन की गहरी सच्चाइयों को जानना चाहते हैं और मानसिक शांति की तलाश में हैं, तो भगवद गीता का दूसरा अध्याय (Bhagwat Geeta Adhyay 2) आपके लिए एक अद्वितीय मार्गदर्शक हो सकता है। आइए, इस अमूल्य ज्ञान का अन्वेषण करें और अपने जीवन को एक नई दिशा दें।
Shlok 1
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥
अनुवाद: संजय ने कहा – करुणा से व्याप्त, शोकयुक्त, अश्रुपूरित नेत्रों वाले अर्जुन को देख कर मधुसुधन कृष्ण ने ये शब्द कहे |
Shlok 2
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।।
अनुवाद: श्रीभगवन ने कहा – हे अर्जुन! तुम्हारे मन में यह कल्मष आया कैसे? यह उस मनुष्य के लिए तनिक भी अनुकूल नहीं हैं, जो जीवन के मूल्य को जानता हो | इससे उच्चलोक की नहीं अपितु अपयश की प्राप्ति होती हैं |
Shlok 3
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥
अनुवाद: हे पृथापुत्र! इस हीन नपुंसकता को प्राप्त मत होओ | यह तुम्हे शोभा नहीं देती| हे शत्रुओं के दमनकर्ता! हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़े होओ |
Shlok 4
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन ।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन ॥
अनुवाद: अर्जुन ने कहा – हे शत्रुहन्ता! हे मधुसुधन! मयुधभूमि में किस तरह भीष्म तथा द्रोण जैसे पूजनीय व्यक्तियों पर उलट कर बाण चलायूँगा |
Shlok 5
गुरूनहत्वा हि महानुभावा-ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुंजीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्
अनुवाद: ऐसे महापुरषों को जो मेरे गुरु है, उन्हें मार कर जीने की अपेक्षा इस संसार में भीख माँग कर खाना अच्छा है | भले ही सांसारिक लाभ के इच्छुक हों, किन्तु है तो गुरुजन ही! यदि उनका वध होता है तो हमारे द्वारा भोग्य प्रत्येक वस्तु उनके रक्त से सनी होगी |
Shlok 6
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो-यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः ।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम-स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥
अनुवाद: हम यह भी नहीं जानते की हमारे लिए क्या श्रेष्ठ है – उनको जीतना या उनके द्वारा जीते जाना | यदि हम धृतराष्ट्र के पुत्रो का वध कर देते हैं तो हमे जीवित रहने की आवश्यकता नहीं है | फिर भी वे युद्धभूमि में हमारे समक्ष खड़े हैं |
Shlok 7
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥
अनुवाद: अब मैं अपनी कृपण – दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चुका हूँ | ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ की जो मेरे लिए श्रेस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएं | अब मैं आपका शिष्य हूँ और आपका शरणागत हूँ | कृपया मुझे उपदेश दें |
Shlok 8
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् ।
अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं-राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥
अनुवाद: मुझे ऐसा कोई साधन नहीं दिखता जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले इस श्लोक को दूर कर सके | स्वर्ग पर देवताओं के अधिपत्य की तरह धनधान्य – समपन सारी पृथ्वी पर निशांकतक राज्य प्राप्त करके भी में इस श्लोक को दूर नहीं कर सकूँगा |
Shlok 9
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप ।
न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥
अनुवाद: संजय ने कहा – इस प्रकार कहने के बाद शत्रुओं का दमन करने वाला अर्जुन कृष्ण ने बोला, “हे गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूँगा,” और चुप हो गया |
Shlok 10
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदंतमिदं वचः ॥
अनुवाद: हे भारतवंशी (धृतराष्ट्र) ! उस समय दोनों सेनाओं के मध्य शोकमग्न अर्जुन से कृष्ण ने मानो हँसते हुए ये शब्द कहे |
Shlok 11
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥
अनुवाद: श्री भगवान् ने कहा – तुम पांडित्यपूर्ण वचन कहते हुए उनके लिए शोक कर रहे हो, जो शोक करने योग्य नहीं हैं | जो विद्वान होते हैं, वे न तो जीवित के लिए, न ही मृत के लिए शोक करते हैं |
Shlok 12
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥
अनुवाद: ऐसा कभी नहीं हुआ की में न रहा होयुं या तुम न रहे हो अथवा ये समस्त राजा न रहे हों; और न ऐसा है की भविष्य में हम लोग नहीं रहेंगे |
Shlok 13
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥
अनुवाद: जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरंतर अगर्सर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है | धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता |
Shlok 14
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥
अनुवाद: हे कुन्तीपुत्र! सुख तथा दुःख का क्षणिक उदय तथा कालक्रम में उनका अन्तर्धान होना सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के आने जाने के समान है | हे भारतवंशी! वे इन्द्रियबोध से उत्पन्न होते हैं और मनुष्य को चाहिए की अविचल भाव से उनको सहन करना सीखे |
Shlok 15
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥
अनुवाद: हे पुरुषश्रेष्ठ (अर्जुन) ! जो पुरुष सुख तथा दुःख में विचलित नहीं होता और इन दोनों में संभव रखता है, वह निश्चित रूप से मुक्ति के योग्य है |
Shlok 16
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥
अनुवाद: तत्वदर्शियों ने यह निष्कर्ष निकाला है की अस्त (भौतिक शरीर) का तो कोई चिरस्थयित्व नहीं है, किन्तु सत (आत्मा) अपरिवर्तित रहता है | उन्होंने इन दोनों की प्रकर्ति के अध्ययन द्वारा यह निष्कर्ष निकाला है |
Shlok 17
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥
अनुवाद: जो सारे शरीर में व्याप्त है उसे ही तुम अविनाशी समझो | उस अव्यय आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है |
Shlok 18
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥
अनुवाद: अविनाशी, अपरमीय तथा शाश्वत जीव के भौतिक शरीर का अंत अवश्यम्भावी है | अतः हे भातवंशी | युद्ध करो |
Shlok 19
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥
अनुवाद: जो इस जीवात्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसे मरा हुआ समझता है, वे दोनों ही अज्ञानी हैं, क्योंकि आत्मा न तो मारती है और न मारा जाता है |
Shlok 20
न जायते म्रियते वा कदाचि-न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
अनुवाद: आत्मा के लिए किसी भी काल में न तो जन्म है न मृत्यु | वह न तो कभी जन्मा है, न जन्म लेता है और न जन्म लेगा | वह अजन्मा, नित्य, शाश्वत तथा पुरातन है | शरीर के मारे जाने पर वह मारा नहीं जाता |
Shlok 21
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥
अनुवाद: हे पार्थ! जो व्यक्ति यह जानता है की आत्मा अविनाशी, अजन्मा, शाश्वत तथा अव्यय है, वह भला किसी को कैसे मार सकता है या मरवा सकता है ?
Shlok 22
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥
अनुवाद: जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रो को त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीरो को त्याग कर नवीन भौतिक शरीर धारण करता है |
Shlok 23
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥
अनुवाद: यह आत्मा न तो कभी किसी शास्त्र द्वारा खण्ड खण्ड किया जा सकता है, न अग्नि दवारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है |
Shlok 24
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥
अनुवाद: यह आत्मा अखंडित तथा अघुलनशील है | इसे न तो जलाया जा सकता है, न ही सुखाया जा सकता है | यह शाश्वत, सर्वव्यापी, अविकारी, स्थिर तथा सदैव एक सा रहने वाला है |
Shlok 25
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥
अनुवाद: यह आत्मा अव्यक्त, अकल्पनीय तथा अपरिवर्तनीय कहा जाता है | या जानकर तुम्हे शरीर के लिए शोक नहीं करना चाहिए |
Shlok 26
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥
अनुवाद: किन्तु यदि तुम यह सोचते हो की आत्मा (अथवा जीवन का लक्षण) सदा जन्म लेता है तथा सदा मारता है तो भी हे महाबाहु! तुम्हारे शोक करने का कोई कारण नहीं है |
Shlok 27
जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥
अनुवाद: जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित है | अतः अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हे शोक नहीं करना चाहिए |
Shlok 28
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥
अनुवाद: सारे जीव प्रारम्भ में अव्यक्त रहते है, मध्य अवस्था में व्यक्त होते है और विनष्ट होने पर पुनः अव्यक्त हो जाते है | अतः शोक करने के क्या आवश्यकता है ?
Shlok 29
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥
अनुवाद: कोई आत्मा को आश्चर्य से देखना है, कोई इसे आश्चर्य की तरह बताता है तथा कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है, किन्तु कोई कोई इसके विषय में सुनकर भी कुछ नहीं समझ पाते |
Shlok 30
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥
अनुवाद: हे भारतवंशी! शरीर में रहने वाले (देही) का कभी भी वध नहीं किया जा सकता | अतः तुम्हे किसी भी जीव के लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है |
Shlok 31
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥
अनुवाद: क्षत्रिय होने के नाते अपने विशिष्ट धर्म का विचार करते हुए तुम्हे जानना चाहिए की धर्म के लिए युद्ध करने से बढ़ कर तुम्हारे लिए अन्य कोई कार्य नहीं है | अतः तुम्हे संकोच करने की कोई आवश्यकता नहीं है |
Shlok 32
यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥
अनुवाद: हे पार्थ! वे क्षत्रिय सुखी है, जिन्हे ऐसे युद्ध के अवसर अपने आप प्राप्त होते हैं जिससे उनके लिए स्वर्गलोक के द्वारा खुल जाते हैं |
Shlok 33
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥
अनुवाद: किन्तु यदि तुम युद्ध करने के स्वधर्म को सम्पन्न नहीं करते तो तुम्हे निश्चित रूप से अपने कर्तव्य की अपेक्षा करने का पाप लगेगा और तुम योद्धा के रूप में भी अपना यश खो देंगे |
Shlok 34
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।
सम्भावितस्य चाकीर्ति र्मरणादतिरिच्यते ॥
अनुवाद: लोग सदैव तुम्हारे अपयश का वर्णन करेंगे और सम्मानित व्यक्ति के लिए अपयश तो मृत्यु से भी बढ़कर है |
Shlok 35
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥
अनुवाद: जिन जिन महान योद्धाओं ने तुम्हारे नाम तथा यश को सम्मान दिया है ये सोचेंगे की तुमने डर के मारे युद्धभूमि छोड़ दी है और इस तरह वे तुम्हे तुच्छ मानेगे |
Shlok 36
अवाच्यवादांश्च बहून् वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ॥
अनुवाद: तुम्हारे शत्रु अनेक प्रकार के कटु शब्दों के तुम्हारा वर्णन करेंगे और तुम्हारी सामर्थ का उपहास करेंगे | तुम्हारे लिए इससे दुःखदायी और क्या हो सकता है ?
Shlok 37
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥
अनुवाद: हे कुन्तीपुत्र! तुम यदि युद्ध में मारे जाओगे तो स्वर्ग प्राप्त करोगे या यदि तुम जीत जाओगे तो पृथ्वी के साम्राज्य का भोग करोगे | अतः दृढ़ संकल्प करके खड़े होयो और युद्ध करो |
Shlok 38
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥
अनुवाद: तुम सुख या दुःख, हानि या लाभ, विजय या पराजय का विचार किये बिना युद्ध के लिए युद्ध करो | ऐसा करने पर तुम्हे कोई पाप नहीं लगेगा |
Shlok 39
एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु ।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥
अनुवाद: यहाँ मैंने वैश्लेषिक अध्ययन (सांख्य) द्वारा इस ज्ञान का वर्णन किया है | अब निष्काम भाव से कर्म करना बता रहा हूँ, उसे सुनो | हे पृथापुत्र! तुम यदि ऐसे ज्ञान से कर्म करोगे तो तुम कर्मो के बंधन से अपने को मुक्त कर सकते हो |
Shlok 40
यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥
अनुवाद: इस प्रयास में न तो हानि होती है न ही हार्स अपितु इस पथ पर की गई अल्प प्रगति भी महान भय से रक्षा कर सकती है |
Shlok 41
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥
अनुवाद: जो इस मार्ग (चलते) हैं वे प्रयोजन में दृढ़ रहते है और उनका लक्ष्य भी एक होता है | हे कुरुनन्दन! जो दृढ़प्रतिज्ञ नहीं हैं उनकी बूढी अनेक शाखाओं में विभक्त रहती है |
Shlok 42
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् ।
क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥
अनुवाद: अल्पज्ञानी मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं, जो स्वर्ग की प्राप्ति, अच्छे जन्म, शक्ति इत्यादि के लिए विविध सकाम कर्म करने की संतुति करते है | इन्द्रियतृप्ति तथा ऐश्वर्यमय जीवन की अभिलाषा के कारण वे कहते हैं की इससे बढ़कर और कुछ नहीं है |
Shlok 43
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ॥
अनुवाद: जो लोग इन्द्रियभोग तथा भौतिक ऐश्वर्य के प्रति अत्यधिक आसक्त होने से ऐसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते हैं, उनके मनो में भगवन के प्रति भक्ति का दृढ़ निश्चय नहीं होता |
Shlok 44
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥
अनुवाद: वेदों में मुख्यता प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन हुआ है | हे अर्जुन! इन तीनों गुणों से उपर उठो | समस्त द्वैतों और लाभ तथा सुरक्षा की साड़ी चिंताओं से मुक्त होकर आत्म परायण बनो |
Shlok 45
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके ।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥
अनुवाद: एक छोटे से कूप का सारा कार्य एक विशाल जलाशय से तुरंत पूरा हो जाता है | इसी प्रकार वेदों के आंतरिक तातपर्य जानने वाले को उनके सारे प्रयोजन सिद्ध हो जाते है |
Shlok 46
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
अनुवाद: तुम्हे अपना कर्म (कर्तव्य) करने का अधिकार है, किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो | तुम न तो कभी अपने आपको अपने कर्मो के फलों का कारण मानो, न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होओ |
Shlok 47
योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
अनुवाद: हे अर्जुन! जय अथवा पराजय की समस्त आसक्ति त्याग कर समभाव से अपना कर्म करो | ऐसी समता योग कहलाती है |
Shlok 48
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥
अनुवाद: हे धनंजय! भक्ति के द्वारा समस्त गृहीत कर्मो से दूर रहो और उसी भाव से भगवन की शरण ग्रहण करो | जो व्यक्ति अपने कर्म फलों को भोगना चाहते हैं, वे कृपण हैं |
Shlok 49
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥
अनुवाद: भक्ति में संलग्न मनुष्य इस जीवन में ही अच्छे तथा बुरे कार्यो से अपने को मुक्त कर लेता है | अतः योग के लिए प्रयत्न करो क्योकि सारा कार्य कौशल यही है |
Shlok 50
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥
अनुवाद: इस तरह भगवद्भक्ति में लगे रहकर बड़े बड़े ऋषि, मुनि अथवा भक्तगण अपने आपको इस भौतिक संसार में कर्म के फलों से मुक्त कर लेते हैं | इस प्रकार वे जन्म मृत्यु के चक्र से छूट जाते हैं और भगवान के पास जाकर उस अवस्था को प्राप्त करते हैं, जो समस्त दुःखो से परे हैं |
Shlok 51
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥
अनुवाद: जब तुम्हारी बूढी मोह रूपी सघन वन को पार कर जाएगी तो तुम सुने हुए तथा सुनंने योग्य सब के प्रति अन्यमनस्क हो जाओगे |
Shlok 52
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥
अनुवाद: जब तुम्हारा मन वेदों को अलंकरमिय भाषा से विचलित न हो और वह आत्म साक्षरता की समाधि में स्थिर हो जाए, तब तुम्हे दिव्य चेतना प्राप्त हो जाएगी |
Shlok 53
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥
अनुवाद: अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण! अध्यात्म में लीं चेतन वाले व्यक्ति (स्थिनतप्रज्ञ) के क्या लक्षण हैं? वह कैसे बोलता है तथा उसकी भाषा क्या है? वह किस तरह बैठता और चलता है ?
Shlok 54
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥
अनुवाद: श्रीभगवान ने कहा – हे पार्थ! जब मनुष्य मनोधर्म से उत्पन्न होने वाली इन्द्रियतृप्ति की समस्त कामनाओं का परित्याग कर देता है और जब इस तरह से विशुद्ध हुआ उसका मन आत्मा में संतोष प्राप्त करता है तो वह विशुद्ध दिव्य चेतना को प्राप्त कहा जाता है |
Shlok 55
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥
अनुवाद: जो त्रय तापों के होने पर भी मन में विचलित नहीं होता अथवा सुख में प्रसन्न नहीं होता और जो आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त है, वह स्थिर मन वाला मुनि कहलाता है |
Shlok 56
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
अनुवाद: इस भौतिक जगत में जो व्यक्ति न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और न अशुभ के प्राप्त होने से उसे घृणा करता है, वह पूर्ण ज्ञान में स्थिर होता है |
Shlok 57
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
अनुवाद: जिस प्रकार कछुआ अपने अंगो को संकुचित करके खोल के भीतर कर लेता है, उसी तरह जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियविषयों से खींच लेता है, वह पूर्ण चेतना में दृढ़तापूर्वक स्थिर होता है |
Shlok 58
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ॥
अनुवाद: देहधारी जीव इन्द्रियभोग से भले ही निवृत हो जाय पर उसमे इन्द्रियभोगो की इच्छा बानी रहती है | लेकिन उत्तम रस के अनुभव होने से ऐसे कार्यो की बंद करने पर वह भक्ति में स्थिर हो जाता है |
Shlok 59
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥
अनुवाद: हे अर्जुन! इन्द्रियाँ इतनी प्रबल तथा वेगवान हैं की वे उस विवेकी पुरुष के मन को भी बलपूर्वक हर लेती हैं, जो उन्हें वश में करने का प्रयत्न करता है |
Shlok 60
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
अनुवाद: जो इन्द्रियों को पूर्णतया वश में रखते हुए इन्द्रिय सयमन करता है और अपनी चेतना को मुझमें स्थिर कर देता है, वह मनुष्य स्थिरबुद्धि कहलाता है |
Shlok 61
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
अनुवाद: इन्द्रियविषयों का चिंतन करते हुए मनुष्य की उनमे आस्तिक उत्पन्न हो जाती है और ऐसी आस्तिक से काम उत्पन्न होता है और फिर काम से क्रोध प्रकट होता है |
Shlok 62
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
अनुवाद: क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है और मोह से स्मरणशक्ति का विभ्र्म हो जाता है | जब स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है, तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य भव कृप में पुनः गिर जाता है |
Shlok 63
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥
अनुवाद: किन्तु समस्त राग तथा द्वेष से मुक्त एवं अपनी इन्द्रियों के संयम द्वारा वश में करने में समर्थ व्यक्ति भगवान् की पूर्ण कृपा प्राप कर सकता है |
Shlok 64
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥
अनुवाद: इस प्रकार से कृष्णभावनामृत में तुष्ट व्यक्ति के लिए संसार के तीनों ताप नष्ट हो जाते हैं और ऐसी तुष्ट चेतना होने पर उसकी बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जाती है |
Shlok 65
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥
अनुवाद: जो कृष्णभावनामृत में परमेश्वर से सम्बंधित नहीं है उसकी न तो बुद्धि दिव्य होती है और न ही मन स्थिर होता है जिसको बिना शांति की कोई सम्भावना नहीं है | शांति के बिना सुख हो भी कैसे सकता है?
Shlok 66
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥
अनुवाद: जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को प्रचंड वायु दूर बहा ले जाती है उसी प्रकार विचरणशील इन्द्रियों में से कोई एक जिस पर मन निरंतर लगा रहता है, मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है|
Shlok 67
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
अनुवाद: अतः हे महाबाहु! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ अपने अपने विषयो से सब प्रकार से विरत होकर उसके वश में हैं, उसी की बुद्धि निसंदेह स्थिर है |
Shlok 68
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥
अनुवाद: जो सब जीवो के लिए रात्रि है, वह आत्मसयंमी के जागने का समय है और जो समस्त जीवों के जागने का समय है वह आत्मनिरिक्षक मुनि के लिए रात्रि है |
Shlok 69
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥
अनुवाद: जो पुरुष समुद्र में निरंतर प्रवेश करती रहने वाली नदियों के समान इच्छाओं के निरंतर प्रवाह से विचलित नहीं होता और जो सदैव स्थिर रहता है, वही शांति प्राप्त कर सकता है, वह नहीं, जो ऐसी इच्छाओं को तुष्ट करने की चेष्टा करता हो |
Shlok 70
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
अनुवाद: जिस व्यक्ति ने इन्द्रियतृप्ति की समस्त इच्छाओं का परित्याग कर दिया है, जो इच्छाओं से रहित रहता है और जिसने सारी ममता त्याग दी है तथा अहंकार से रहित है, वही वास्तविक शांति को प्राप्त कर सकता है |
Shlok 71
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥
अनुवाद: यह आध्यात्मिक तथा ईश्वरीय जीवन का पथ है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य मोहित नहीं होता | यदि कोई जीवन के अंतिम समय में भी इस तरह स्थित हो, तो वह भगवद्धाम में प्रवेश कर सकता है |
निष्कर्ष
भगवद गीता का अध्याय 2 जीवन की गहरी और स्थायी शिक्षाओं का भंडार है। श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेश न केवल उनके समय में प्रासंगिक थे, बल्कि आज के तेज़-तर्रार और चुनौतीपूर्ण समय में भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। आत्मा की अमरता, कर्तव्य का पालन, और समता का भाव जैसी शिक्षाएँ हमें मानसिक शांति और स्थिरता प्राप्त करने का मार्ग दिखाती हैं।
इस अद्भुत ग्रंथ से प्रेरणा लेकर हम अपने जीवन में संतुलन, धैर्य और आत्म-नियंत्रण स्थापित कर सकते हैं। यह अध्याय हमें सिखाता है कि जीवन के उतार-चढ़ाव में भी कैसे स्थिर रहें और अपने कर्तव्यों का निर्वाह करें।
आने वाले ब्लॉग में हम भगवद गीता अध्याय 3 की महत्वपूर्ण शिक्षाओं और उनके आधुनिक जीवन में उपयोगिता पर चर्चा करेंगे।