भगवद गीता के आठवें अध्याय में (Bhagwat Geeta Adhyay 8 in Hindi), भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के सवालों का उत्तर देते हुए जीवन, मृत्यु और आत्मा के रहस्यों को उजागर करते हैं। इस अध्याय का अध्ययन मनुष्य को जीवन के अंतिम सत्य की ओर ले जाता है और उसे यह समझने में मदद करता है कि स्थायी शांति और मुक्ति कैसे प्राप्त की जा सकती है। श्री मदभागवत गीता ज्ञान (geeta gyan) पर हम अध्याय 8 के श्लोक 1 से श्लोक 28 तक का संक्षेप विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं। इन श्लोकों में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्म, आत्मा, कर्म, यज्ञ और मोक्ष के महत्व को विस्तार से बताया है।
अध्याय 8 के श्लोकों का सार और उनके गूढ़ अर्थ
भगवद गीता के आठवें अध्याय के श्लोकों का सार प्रस्तुत करते हुए, भगवान श्रीकृष्ण द्वारा आत्मा, कर्म, यज्ञ, और मोक्ष के महत्व को विस्तार से समझाया गया है।
भगवद गीता अध्याय 8 श्लोक (Bhagwat Geeta Adhyay 8 Shlok)
Shlok 1
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥
अनुवाद: अर्जुन ने कहा – हे भगवान्! हे पुरुषोत्तम! ब्रम्हा क्या है? आत्मा क्या है? सकाम कर्म क्या है? यह भौतिक जगत क्या है? तथा देवता क्या हैं? कृपा करके यह सब मुझे बताये |
Shlok 2
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ॥
अनुवाद: हे मधुसुधन! यज्ञ का स्वामी कौन है और वह शरीर में कैसे रहता है? और मृत्यु के समय भक्ति में लगे रहने वाले आपको कैसे जान पाते हैं?
Shlok 3
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ॥
अनुवाद: भगवान् ने कहा – अविनाशी और दिव्य जीव ब्रम्हा कहलाता है और उसका नित्य स्वभाव अध्यात्म या आत्म कहलाता है | जीवों के भौतिक शरीर से सम्बंधित गतिविधि कर्म या सकाम कर्म कहलाता है |
Shlok 4
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् ।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥
अनुवाद: हे देहधारियों में श्रेष्ठ! निरंतर परिवर्तनशील यह भौतिक प्रकृति अधिभूत कहलाती है | भगवान् का विराट रूप, जिसमे सूर्य तथा चंद्र जैसे समस्त देवता सम्मलित हैं, अधिदैव कहलाता है | तथा प्रत्येक देहधारी के हृदय में परमात्मा स्वरूप स्थित मैं परमेश्वर अधियज्ञ कहलाता हूँ |
Shlok 5
अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥
अनुवाद: और जीवन के अंत में जो केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह तुरंत मेरे स्वभाव को प्राप्त करता है | इसमें रनचंत्र भी संदेह नहीं है |
Shlok 6
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥
अनुवाद: हे कुन्तीपुत्र! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है |
Shlok 7
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥
अनुवाद: अतएव, हे अर्जुन! तुम्हें सदैव कृष्ण रूप में मेरा चिन्तन करना चाहिए और यथा ही युद्ध करने के कर्तव्य को भी पूरा करना चाहिए | अपने कर्मों को मुझे समर्पित करके तथा अपने मन एवं बुद्धि को मुझमें स्थिर करके तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त कर सकोगे |
Shlok 8
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥
अनुवाद: हे पार्थ! जो व्यक्ति मेरा स्मरण करने में अपना मन निरंतर लगाए रखकर अविचलित भाव से भगवान् के रूप में मेरा ध्यान करता है, वह मुझको अवश्य ही प्राप्त होता है |
Shlok 9
कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ॥
अनुवाद: मनुष्य को चाहिए कि परमपुरुष का ध्यान सर्वज्ञ, पुरातन, नियंता, लघुतम से भी लघुतर, प्रत्येक का पालनकर्ता, समस्त भौतिकबुद्धि से परे, अचिन्त्य तथा नित्य पुरुष के रूप में करे | वे सूर्य की भाँति तेजवान हैं और इस भौतिक प्रकृति से परे, दिव्य रूप हैं |
Shlok 10
प्रयाण काले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्- स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥
अनुवाद: मृत्यु के समय जो व्यक्ति अपने प्राण को भौहों के मध्य स्थिर कर लेता है और योगशक्ति के द्वारा अविचलित मन से पूर्णभक्ति के साथ परमेश्वर के स्मरण में अपने को लगता है, वह निश्चित रूप से भगवान् को प्राप्त होता है |
Shlok 11
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥
अनुवाद: जो वेदों के ज्ञाता हैं, जो ओंकार का उच्चारण करते हैं और जो संन्यास आश्रम के बड़े बड़े मुनि हैं, वे ब्रम्हा में प्रवेश करते हैं | ऐसी सिद्धि की इच्छा करने वाले ब्रम्हचर्यव्रत का अभ्यास करते हैं | अब मैं तुम्हे वह विधि बताऊँगा, जिससे कोई भी व्यक्ति मुक्ति लाभ कर सकता है |
Shlok 12
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥
अनुवाद: समस्त इंद्रिय क्रियाओं से विरिक्त को योग की स्थिति कहा जाता है | इन्द्रियों के समस्त द्वारा को बन्द करके तथा मन को हृदय में और प्राणवायु को सिर पर केंद्रित करके मनुष्य अपने को योग में स्थापित करता है |
Shlok 13
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥
अनुवाद: इस योगाभ्यास में स्थित होकर तथा अक्षरों के परम संयोग यानी ओमकार का उच्चारण करते हुए यदि कोई भगवान् का चिंतन करता है और अपने शरीर का त्याग करता है, तो वह निश्चित रूप से आध्यात्मिक लोकों को जाता है |
Shlok 14
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनीः ॥
अनुवाद: हे अर्जुन! जो अनन्य भाव से निरन्तर मेरा स्मरण करता है उसके लिए मैं सुलभ हूँ, क्योंकि वह मेरी भक्ति में प्रवृत रहता है |
Shlok 15
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥
अनुवाद: मुझे प्राप्त करके महापुरुष, जो भक्तियोगी हैं, कभी भी दुःखों से पूर्ण इस अनित्य जगत में लौटते, क्योंकि उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती है |
Shlok 16
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥
अनुवाद: इस जगत में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतम सारे लोक दुःखों के घर हैं, जहाँ जन्म तथा मरण का चकर लगा रहता है | किन्तु हे कुन्तीपुत्र! जो मेरे धाम को प्राप्त कर लेता है, वह फिर कभी जन्म नहीं लेता |
Shlok 17
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः ।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥
अनुवाद: मानवीय गणना के अनुसार एक हज़ार योग मिलकर ब्रम्हा का एक दिन बनता है और इतनी ही बड़ी बरम्हा को रात्रि भी होती है |
Shlok 18
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे ।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके ॥
अनुवाद: बरम्हा के दिन के शुभारम्भ में सारे जीव अव्यक्त अवस्था से व्यक्त होते हैं और फिर जब रात्रि आती है तो वे पुनः अव्यक्त में विलीन हो जाते हैं |
Shlok 19
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ॥
अनुवाद: जब जब ब्रम्हा का दिन आता है तो सारे जीव प्रकट होते हैं और ब्रम्हा की रात्रि होते ही वे असहायवत विलीन हो जाते हैं |
Shlok 20
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥
अनुवाद: इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यक्त प्रकृति है, जो शाश्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है | वह परा और कभी नाश न होने वाली है | जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता |
Shlok 21
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥
अनुवाद: जिसे वेदान्ती अप्रकट तथा अविनाशी बताते हैं, जो परम गंतव्य है, जिसे प्राप्त कर लेते पर कोई वापस नहीं आता, वही मेरा परमधाम है |
Shlok 22
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥
अनुवाद: भगवान्, जो सबसे महान हैं, अनन्य भक्ति द्वारा ही प्राप्त किये सकते हैं | यद्धपि वे अपने धाम में विराजमान रहते हैं, तो भी वे सर्वव्यापी हैं और उनमे सब कुछ स्थित है |
Shlok 23
यत्र काले त्वनावत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥
अनुवाद: हे भरतश्रेष्ठ! अब मैँ तुम्हें उन विभिन्न कालों को बताऊँगा, जिनमें इस संसार से प्रयाण करने के बाद योगी पुनः अथवा नहीं आता |
Shlok 24
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥
अनुवाद: जो परब्रम्हा के ज्ञाता हैं, वे अग्निदेव के प्रभाव में, प्रकाश में, दिन के शुभक्षण में, शुक्लपक्ष में या जब सूर्य अत्तरायण में रहता है, उन छह मासों में इस संसार से शरीर त्याग करने पर उस परब्र्रम्हा को प्राप्त करते हैं |
Shlok 25
धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥
अनुवाद: जो योगी धुएँ, रात्रि, कृष्णपक्ष में या सूर्य के दक्षिणायन में रहने के छह महीनों में दिवंगत होता है, वह चन्द्रलोक को जाता हैं, किन्तु वहाँ से पुनः चला आता है |
Shlok 26
शुक्ल कृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्ति मन्ययावर्तते पुनः ॥
अनुवाद: वैदिक मतानुसार इस संसार से प्रयाण करने के दो मार्ग हैं – एक प्रकाश का तथा दूसरा अंधकार का | जब मनुष्य प्रकाश के मार्ग से जाता है तो वह वापस नहीं आता, किन्तु अंधकार के मार्ग से जाने वाला पुनः लौटकर आता है |
Shlok 27
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥
अनुवाद: हे अर्जुन! यद्धपि भक्तगण इन दोनों मार्गों को जानते हैं, किन्तु वे मोहग्रस्त नहीं होते | अतः तुम भक्ति में सदैव स्थिर रहो |
Shlok 28
वेदेषु यज्ञेषु तपः सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।
अत्येत तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ॥
अनुवाद: जो व्यक्ति भक्तिमार्ग स्वीकार करता है, वह वेदाध्ययन, तपस्या, दान, दार्शनिक तथा सकाम कर्म करने से प्राप्त होने वाले फलों से वचित नहीं होता | वह मात्र भक्ति सम्पन्न करके इन समस्त फलों की प्राप्ति करता है और अन्त में परम नित्यधाम को प्राप्त होता है |
भगवद गीता हिंदी (bhagwat geeta gyan in hindi) का आठवां अध्याय आत्मा, कर्म और मोक्ष के गहन सिद्धांतों पर प्रकाश डालता है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह सिखाया कि जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाने के लिए किस प्रकार भक्ति और योग का अभ्यास करना चाहिए। इस अध्याय के अध्ययन से हमें यह ज्ञान प्राप्त होता है कि आत्मा अमर है और केवल भक्ति और योग के माध्यम से ही परमात्मा की प्राप्ति संभव है। शाश्वत शांति और मोक्ष की प्राप्ति के लिए हमें अपने मन और बुद्धि को भगवान में स्थिर करना चाहिए। इस प्रकार, यह अध्याय हमें जीवन की गहन सच्चाइयों की ओर ले जाता है और हमारे आत्मिक विकास में सहायक सिद्ध होता है।
आने वाले ब्लॉग में हम भगवद गीता अध्याय 9 की महत्वपूर्ण शिक्षाओं और उनके आधुनिक जीवन में उपयोगिता पर चर्चा करेंगे।