Aatma Amar Hai (आत्मा अमर है) | Episode 3

आत्मा अमर हैं (Aatma Amar Hain)

रिटायरमेंट के बाद सुदर्शन जी उर्फ़ भगत जी के साथ कुछ उल्टा ही हो गया, जहाँ आमतौर पर लोग रिटायरमेंट के बाद समय काटने के लिए वो सारे काम करने लगते हैं जिनसे जिंदगी भर वो बचते रहे थे जैसे की सुबह शाम घूमने जाना, आस पड़ोस में दोस्त बनाना, पोधो में पानी डालना आदि |

लेकिन भगत जी का हाल कुछ उल्टा ही था, उनके पास उनका गीता ज्ञान का ब्लॉग था | भगवत गीता ज्ञान हिंदी में (Bhagwat Geeta Gyan in Hindi) होने के जरिये उन्होंने जाने कितने लोगो से दोस्ती कर ली थी उनकी कंप्यूटर स्क्रीन की एक छोटी सी खिड़की थी जिससे वे सारी दुनिया को देख सकते थे, अपनी बातें कह सकते थे, दुसरो की सुन सकते थे |

इस उम्र की खुद का सीखा दुसरो को बाटने की और दुसरो से सिखने की उनकी भूख ही भगत जी को कभी पता नहीं चलने देती थी की अब धीरे धीरे बुढ़ापा उनकी हड्डियों पर हावी हो रहा हैं, जिंदगी रेत की तरह मुठी से फिसल रही थी |

रोज ना जाने कितने लोग ईमेल के जरिये से अपनी जिंदगी की परेशानियों का हल मांगते हैं और भगत जी भी अपने गीता ज्ञान (Geeta Gyan) से हर बार कोई ना कोई ऐसा हिरा निकल ही लाते थे जो अँधेरी रात जैसी मुश्किल में भी उजाले की किरण बिखेर देती थी | लेकिन कई बार दूर के लोगो को समझाना आसान होता हैं अपने  आस पास के लोगो को बिलकुल नहीं |

क्योकि तब आप भी उनके दुःख में दुखी होते है तब उनके साथ आपको भी समझना होता हैं जो की दुनिया का सबसे मुश्किल काम हैं | भगत जी भी कल रात से ऐसी ही एक परेशानी में फसे हैं, उनके बहुत खास दोस्त मणिकांत दुःख की नदी में डूब रहे हैं और भगत जी को समझ में नहीं आ रहा हैं की कैसे दोस्त को डूबने से बचाये, क्या कहे ऐसा जो उनके मन को हिम्मत मिले |

कहने जाते भी हैं तो अपना ही गला सूखा सा हो जाता हैं, रह रह कर उस पुराने वक्त की यादें आँखों के आगे आ जाती हैं |

यादें जिनमे वे खुद है, उनकी पत्नी हैं, मणिकांत हैं और मणिकांत की पत्नी मनीषा हैं | जो अचानक से अपने पति को अलविदा कह कर अन्नत की यात्रा पर निकल गयी हैं और पीछे छोड़ गयी है उनके दोस्त को | इसके बारे में तमाम मण्डली मज़ाक बनाती थी की वो तो किसी के सपने में भी बिना मनीषा के नहीं जाता |  मनीषा और मणिकांत की कहानी याद करके भगत जी बार बार भावुक हो जाते हैं |

मणिकांत और उनकी पत्नी व भगत जी और उनकी पत्नी की दोस्ती

कुछ 40 बरस पहले नयी नयी शादी करके ये दोनों इस मोहले में किराये पर रहने आये थे, दोनों ही बैंक में काम करते थे और कुछ काम की वयवस्था और कुछ नए होने के संकोच के कारण मोहल्ले के कुछ ही लोगो से उनकी जान पहचान हो पायी थी | भगत जी के दोनों बेटे तब बहुत छोटे थे और मणिकांत की दोस्ती उन दोनों से पहले हुई थी, शायद इसका कारण मणिकांत का  बच्चो से बहुत प्यार करना रहा हो |

धीरे धीरे बच्चो की ये दोस्ती उनके माँ बाप तक पहुंची और ये चारो भी आपस में बहुत अच्छे दोस्त बन गए | ईश्वर के खेल भी अजब निराले हैं जिस मणिकांत को बच्चो से अतः प्रेम था उसी को औलाद के सुख से वांछित रखा | भगत जी की पत्नी के साथ मनीषा ने ना जाने कितने डॉक्टर के चक्कर लगाए, इतने मंदिरो में माथा टेका, जाने कितने दिन भूखे रह कर व्रत उपवास किये | लेकिन औलाद भाग्य में नहीं थी सो नहीं मिली |

मणिकांत ने मनीषा के आगे कभी ये जाहिर नहीं होने दिया की संतान ना होने का उन्हें कोई दुख हैं बल्कि वे तो मनीषा को समझाते रहते की उसे सच को स्वीकार कर लेना चाइये और एक कमी के पीछे जीवन की बाकि खुशियों को नजर अंदाज नहीं करना चाहिए |

हलाकि मनीषा को ये मलाल सदा रहा की वो माँ नहीं बन पायी और वो हमेशा अपनी ममता भगत जी के दोनों बेटो पर लुटाती रही | समय के साथ दोनों परिवारों की दोस्ती और मजबूत होती गयी और हर सुख दुःख एक दूसरे के सहारे निभता रहा | उन दोनों में अलग तरह का प्रेम और समर्पण भाव था, दोनों जहा जाते साथ जाते | यहाँ तक की सब्जी लेने भी, उनकी पसंद और नापसंद हैरान करने तक की हद तक एक थी, उनका स्वभाव भी एक जैसा |

ऐसा लगता था दोनों का ही व्यक्तित्व एक ही रंग से लिखा गया था, उनके मन एक ही सांचे में ढाले गए थे | एक दूसरे के बिना उन दोनों की कल्पना भी नहीं हो सकती थी और आज वोही जोड़ा टूट गया था | जो अकेला छूट गया था, उसके बाकि बचे जीवन की कल्पना भी अब मन में सिहरन पैदा कर रही थी |

किसी तरह बड़ी मुश्किल से मणिकांत को सहारा दे कर उन्होंने अंतिम क्रिया से जुडी विधियाँ करवाई थी | मणिकांत का हाल ऐसा था की जिसे देख कर पत्थर भी पिघल जाये, उसका विलाप, उसके आंसू देख कर तो मौत के देवता की भी आंखे भर आयी होंगी | कभी मजाक में शायद मनीषा ने मणिकांत से कहा होगा की अंत समय में उन्हें गंगा किनारे जलाया जाये और उनकी अस्थिया माँ गंगा की गोद में बहायी जाये |

सो उनकी इसी इच्छा का मान रखते हुए मणिकांत ने भगत जी से मनीषा को हरिद्धार ले जाने की बात कही और इंतजाम करने का अनुरोध किया | हरिद्धार के पुरे रास्ते मणिकांत जैसे बेसूद थे उन्हें देख के मानो ऐसा लग रहा था मानो ये दुःख में डूब जाना चाहते हैं ना उनके उभरने की शक्ति बची थी ना ही इच्छा | मणिकांत को कुछ होश नहीं था की कब लोगो ने उनसे अंतिम क्रिया की रस्मे करवाई और कब उन्होंने किसी और के सहारे से खड़े हो कर मनीषा को अग्नि देकर अग्नि के हवाले कर दिया |

उनकी नजरो के सामने बस राख थी, ठंडी और बेजान | इधर अंतिम संस्कार के साथ आये लोगो के लिए भगत जी ने नाश्ते का इंतजाम करवा दिया था | सब उधर बिजी थे और मणिकांत अकेले एक बेंच पर बैठे जाने दुःख के कितने गहरे समुंद्र में डूबे जा रहे थे | दूर खड़े भगत जी ये सब देख रहे थे, उन्होंने तय किया की उन्हें मणिकांत को इस सदमे से बाहर लाना ही होगा, उन्हें सच को स्वीकार करने का होंसला देना ही होगा क्योकि ये अभी ना हुआ तो कभी नहीं हो सकेगा |

मणिकांत के पास जाकर उन्होंने उसके कंधे पर धीरे से हाथ रखा और ऊँची आवाज में भगत गीता का ये श्लोक पढ़ा

गीता का श्लोक (अध्याय 2)

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥

जानते हो मणिकांत, इस श्लोक का अर्थ क्या हैं? श्लोक का अर्थ है आत्मा को ना औजार काट सकते हैं, ना आग उसे जला सकती हैं, ना पानी उसे भिगो सकता है. ना हवा उसे सूखा सकती है, आत्मा अजर और अमर है | ये श्लोक श्रीमद्भागवत के दूसरे अध्याय में है, उसी गीता में जिसमे स्वयं भगवान श्री कृष्ण के श्री मुख से अमृत बनकर बरसी और जिसकी ज्ञान गंगा में भीगने वाला हर मन मोक्ष को पा लेता हैं |

मणिकांत का ध्यान आज सुनी हुई सारी बातो में बस इसी बात में उसकी और खिंचा, उन्होंने भगत जी से पूछा के उनके सुनाये श्लोक का यहाँ क्या मतलब हैं? क्या सम्बन्ध हैं? क्योकि तुम शरीर और आत्मा का फर्क भूल रहे हो मेरे दोस्त अपनी प्रिय पत्नी के शौक में तुम इस सच को अनदेखा कर रहे हो, की उसका सिर्फ शरीर नष्ट हुआ है उसे चलाने वाली आत्मा नहीं |

क्योकि आत्मा तो अजर और अमर है, एक शरीर से दूसरे शरीर की यात्रा करती हैं, एक जन्म से दूसरे जन्म का फेरा लगाती हैं | जो मिटा वो मिट्टी थी, जो जीवन शक्ति थी वो अब भी वही हैं किसी और मिट्टी में जान फुकने चली गयी है | उसके लिए शौक करना बेकार हैं, ये उस आत्मा का अपमान भी है, उसे सम्मान के साथ ही विदा करना ही समझदारी है | यही बात भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को बताने के बहाने हमे बता रहे है |

हमारे मोह माया के बंधन हमे सच्चे लगते है लेकिन सच सिर्फ एक है और यह वोही सच हैं जिसे भगवन श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताया है की आत्मा अजर और अमर हैं | इसलिए शरीर के प्रति प्रेम रखना व्यर्थ हैं, तुम्हारी मनीषा की देह का साथ तुम्हारे साथ बस यही तक का था इस सच को स्वीकार कर लो और उसकी मृत्यु को उसी भाव से स्वीकार करो जिस भाव से उसके साथ को स्वीकार किया था |

माता-पिता, बेटा-बेटी, पति-पत्नी ये सब रिश्ते देह से जुड़े है, आत्माये इन रिश्तो से आजाद हैं | वो किसी अभिनेता की तरह बस किरदार निभाने तक देह में रहती हैं, किरदार ख़तम तो आत्मा भी किसी और किरदार को निभाने निकल जाती है | जो अब तक जिया उसकी अच्छी यादों को समेट लो यही जीवन की कमाई है, उसी के सहारे आगे का जीवन काटना है |

उस आत्मा को प्रणाम करो और खुद को शरीर के मोह से आजाद करो | भगत जी की इन बातो को सुन कर और भगवत गीता के इस श्लोक की व्याख्या सुन कर मणिकांत के मन को ऐसी हिम्मत मिली जैसे किसी डूबते हुए को मजबूत हाथो का सहारा मिल गया हो |

जीवन के लिखे को स्वीकार करने की प्रेरणा ने जैसे उसके डगमगाते कदमो में ताकत भर दी थी | उसने तय किया की अपनी मर चुकी पत्नी की यादों को सम्मान देते हुए अब उसकी मृत्यु को भी सम्मान देगा और साथ ही और भी गहराही से श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान को समझेगा |

इधर खुद भगत जी का मन भी अब शांत हो गया था | उन्होंने मन ही मन श्रीमद्भागवत गीता और भगवन श्री कृष्ण को प्रणाम किया उनको धन्यवाद दिया की उन्होंने गीता के रूप में मनुष्य के लिए हर मुश्किल परिस्थति का हल पहले से ही बता दिया है बस उसे ढूंढ़ने और समझने की जरुरत है |

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