भगवद गीता (bhagwat geeta adhyay 1), जिसे गीता भी कहा जाता है, हिंदू दर्शन के सबसे पूजनीय ग्रंथों में से एक है, जो जीवन, कर्तव्य और आध्यात्मिकता की प्रकृति पर गहन अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। यह प्राचीन शास्त्र लाखों लोगों के लिए एक मार्गदर्शक प्रकाशस्तंभ रहा है, जो समय और सांस्कृतिक सीमाओं को पार करते हुए ज्ञान प्रदान करता है। इसके उपदेश न केवल धार्मिक चर्चा तक सीमित हैं, बल्कि जीवन के सबक और दार्शनिक अन्वेषण तक भी विस्तृत हैं, जिससे यह ज्ञान का एक सार्वभौमिक स्रोत बन जाता है।
भगवत गीता का पहला अध्याय (bhagwat geeta adhyay 1 in hindi)”अर्जुनविषाद योग” कहलाता है। इसमें (bhagavad gita adhyay 1)
कुरुक्षेत्र युद्ध के मैदान में अर्जुन की मानसिक स्थिति और उनके द्वंद्व का वर्णन है। यहाँ पर संजय, जो दिव्य दृष्टि से युद्ध का हाल देख सकते हैं, धृतराष्ट्र को युद्ध की घटनाओं का वर्णन कर रहे हैं।
भगवद गीता के अध्याय 1 (bhagwat geeta ka pehla adhyay) में, हम महाभारत के महान युद्ध के कगार पर खुद को पाते हैं। यह दृश्य प्रत्याशा और तनाव से भरा हुआ है, क्योंकि दो शक्तिशाली सेनाएँ टकराने के लिए तैयार खड़ी हैं। अर्जुन, पांडवों के एक योद्धा राजकुमार, अपने ही रिश्तेदारों, गुरुओं और मित्रों से लड़ने की संभावना से संदेह और शोक में डूब जाते हैं। यह आंतरिक संघर्ष उनके भावनात्मक टूटने का कारण बनता है, जो कालातीत संवाद के लिए मंच तैयार करता है। इस अध्याय के माध्यम से, गीता ज्ञान अपने गहन आध्यात्मिक ज्ञान को प्रकट करना शुरू करती है, जो कर्तव्य, धर्म और मानव स्थिति के मुख्य प्रश्नों को संबोधित करती है।
भगवत गीता अध्याय 1 (Shrimad Bhagwat Geeta Adhyay 1): अर्जुनविषाद योग
Shlok 1:
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥
अनुवाद: धृतराष्ट्र ने कहा – हे संजय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रो ने क्या किया?
Shlok 2:
दृष्टा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥
अनुवाद: संजय ने कहा – हे राजन्! पाण्डुपुत्रों द्वारा सेना की व्यूहरचना देख कर राजा दुर्योधन अपने गुरु के पास गया और उसने ये शब्द कहे |
Shlok 3:
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥
अनुवाद: हे आचार्य! पाण्डुपुत्रों की विशाल सेना को देखा, जिसे आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपद के पुत्र ने इतने कौशल से व्यवस्थित किया है |
Shlok 4:
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥
अनुवाद: इस सेना में भीम तथा अर्जुन के समान युद्ध करने वाले अनेक वीर धनुर्धर है – यथा महारथी युयुधान, विराट तथा द्रुपद |
Shlok 5:
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः ॥
अनुवाद: इनके साथ ही धृष्टकेतु, चेकितान, काशिराज, पुरुजित्, कुन्तिभोज तथा शैब्य जैसे महान शक्तिशाली योद्धा भी है |
Shlok 6:
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥
अनुवाद: पराक्रमी युधामन्यु, अत्यंत शक्तिशाली उत्तमौजा, सुभद्रा का पुत्र तथा द्रोपदी के पुत्र – ये सभी महारथी हैं|
Shlok 7:
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥
अनुवाद: किन्तु हे ब्राम्हण श्रेष्ठ! आपकी सुचना के लिए में अपनी सेना के उन नायकों के विषय में बताना चाहूँगा जो मेरी सेना को संचालित करने में विशेष रूप से निपुण हैं |
Shlok 8:
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥
अनुवाद: मेरी सेना में स्वयं आप, भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण तथा सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा आदि हैं जो युद्ध में सदैव विजयी रहे हैं |
Shlok 9:
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥
अनुवाद: ऐसे अन्य अनेक वीर भी हैं जो मेरे लिए अपना जीवन त्याग करने के लिए उद्धत हैं | वे विविध प्रकार के हथियारों से सुसज्जित हैं और युधविद्या में निपुण हैं |
Shlok 10:
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥
अनुवाद: हमारी शक्ति अपरिमय हैं और हम सब पितामह द्वारा भलीभांति सरंक्षित हैं, जबकि पांडवो के शक्ति भीम द्वारा भलीभांति सरंक्षित होकर भी सीमित हैं |
Shlok 11:
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥
अनुवाद: अतएव सैन्यव्युह में अपने अपने मोर्चो पर खड़े रहकर आप सभी भीष्म पितामह को पूरी पूरी सहायता |
Shlok 12:
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मो प्रतापवान् ॥
अनुवाद: तब कुरुवंश के वयोवृद्ध परम प्रतापी एवं वृद्ध पितामह ने सिंह-गर्जना की सी ध्वनि करने वाले अपने शंखो को उच्च स्वर से बजाया, जिससे दुर्योधन को हर्ष हुआ |
Shlok 13:
ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥
अनुवाद: तत्पश्चात संख, नगाड़े, बिगुल, तुरही तथा सींग सहसा एक साथ बज उठे | वह समवेत स्वर अत्यंत कोलाहपूर्ण था |
Shlok 14:
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ॥
अनुवाद: दूसरी ओर से श्र्वेत घोड़ो द्वारा खींचे जाने वाले विशाल रथ पर आसीन कृष्ण तथ अर्जुन ने अपने अपने दिव्य शंख बजाये |
Shlok 15:
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः ॥
अनुवाद: भगवन श्री कृष्ण ने अपना पाञ्चजन्य शंख बजाय, अर्जुन ने देवदत्त शंख तथा अतिभोजी एवं अतिमानवीय कार्य करने वाले भीम ने पौण्ड्र नामक भयंकर शंख बजाये |
Shlok 16:
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक् ॥
अनुवाद: हे राजन! कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अपना अनंतविजय नामक शंख बजाया तथा नकुल और सहदेव ने सुघोष एवं मणिपुष्पक शंख बजाये | महान धनुर्धन काशीराज, परम योद्धा शिखंडी, धृष्टद्युम्न, विराट, अजेय सात्यकि, द्रुपद, द्रोपदी के पुत्र तथा सुभद्रा के महाबाहु पुत्र आदि सबो ने अपने अपने शंख बजाये |
Shlok 17:
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ॥
अनुवाद: इन विभिन शंखो की ध्वनि कोलाहलपूर्ण बन गई जो आकाश तथा पृथ्वी को शब्दायमान करती हुई धृतराष्ट्र के पुत्रो के हृदय को विदीर्ण करने लगी |
Shlok 18:
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ।
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ॥
अनुवाद: उस समय हनुमान से अंकित ध्वजा लगे रथ पर आसीन पाण्डुपुत्र अर्जुन अपना धनुष उठ कर तीर चलाने के लिए उघत हुआ | हे राजन! ध्रतराष्ट्र के पुत्रो को व्यूह में खड़ा देखकर अर्जुन ने श्री कृष्ण से ये वचन कहे |
Shlok 19:
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ।
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥
अनुवाद: अर्जुन ने कहा – हे अच्युत! कृपा करके मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच ले चलें जिससे में यहाँ उपस्थित युद्ध की अभिलाषा रखने वालो को और शास्त्रों की इस महान परीक्षा में, जिसने मुझे संघर्ष करना हैं, उन्हें देख सकूँ |
Shlok 20:
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥
अनुवाद: मुझे उन लोगो को देखने दीजिये, जो यहाँ पर ध्रतराष्ट्र के दुर्बुद्धि पुत्र (दुर्योंधन) को प्रसन करने की इच्छा से लड़ने के लिए आये हुए हैं |
Shlok 21:
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥
अनुवाद: संजय ने कहा – हे भरतवंशी! अर्जुन द्वारा इस प्रकार सम्भोधित किये जाने पर भगवन कृष्ण ने दोनों दलों के बीच में उस उत्तम रथ को लाकर खड़ा कर दिया |
Shlok 22:
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति ॥
अनुवाद: भीष्म, द्रोण तथा विश्व भर के अन्य समस्त राजाओं के सामने भगवन ने कहा की हे पार्थ! यहाँ पर एकत्र सरे कुरुओं को देखो|
Shlok 23:
तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान् ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ।
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ॥
अनुवाद: अर्जुन ने वहां पर दोनों पक्षों की सेनाओं के मध्य में अपने चाचा-ताऊओं, पितामहों, गुरुओं, मामाओं, भाइयों, पुत्रों, पोत्रों, मित्रों, ससुरों और शुभचिंतको को भी देखा |
Shlok 24:
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान् बन्धूनवस्थितान् ।
कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत् ॥
अनुवाद: जब कुन्तीपुत्र अर्जुन ने मित्रो तथा सम्बन्धियों की इन विभिन्न श्रेणियों को देखा तो वह करुणा से अभिभूत हो गया और इस प्रकार बोला |
Shlok 25:
दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ॥
अनुवाद: अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण! इस प्रकार युद्ध की इच्छा रखने वाले अपने मित्रो तथा सम्बन्धियों को अपने समक्ष उपस्थिति देखकर मेरे शरीर के अंग काँप रहे है और मेरा मुँह सूखा जा रहा है|
Shlok 26:
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते ।
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते ॥
अनुवाद: मेरा सारा शरीर काँप रहा है, मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं, मेरा गाण्डीव धनुष मेरे हाथ से सरक रहा है और मेरी त्वचा जल रही है |
Shlok 27:
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।।
अनुवाद: मैं यहाँ अब और अधिक खड़ा रहने में असमर्थ हूँ | में अपने को भूल रहा हूँ और मेरा सिर चकरा रहा है | हे कृष्ण! मुझे तो केवल अमंगल के कारण दिख रहे हैं |
Shlok 28:
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।।
अनुवाद: हे कृष्ण! इस युद्ध में अपने ही स्वजनों का वध करने से न तो मुझे कोई अच्छाई दिखती है और न, में उससे किसी प्रकार की विजय, राज्य या सुख की इच्छा रखता हूँ |
Shlok 29:
किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ।
येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ।
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा ।
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ।
निहत्य धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।।
अनुवाद: हे गोविन्द! हमें राज्य, सुख अथवा इस जीवन से क्या लाभ! क्योंकि जिन सरे लोगो के लिए हम उन्हें चाहते हैं वे ही इस युद्धभूमि में खड़े हैं | हे मधुसुधन! जब गुरुजन, पितृगण, पुत्रगण, पितामह, मामा, ससुर, पौत्रगण, साले तथा अन्य सरे सम्बन्धी अपना अपना धन एवं प्राण देने के लिए तत्पर हैं और मेरे समक्ष खड़े हैं तो फिर में इन सबको क्यों मारना चाहूँगा, भले ही वे मुझे क्यों न मार डालें? हे जीवो के पालक! मैं इन सबों से लड़ने को तैयार नहीं, भले ही बदले में मुझे तीनो लोक क्यों न मिलते हों, इस पृथ्वी की तो बात ही छोड़ दें| भला धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमे कौन सी प्रसन्त्ता मिलेगी?
Shlok 30:
पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः ।
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥
अनुवाद: यदि हम ऐसे आततायियों का वध करते हैं तो हम पर पाप चढ़ेगा, अतः यह उचित नहीं होगा की हम धृतराष्ट्र के पुत्रों तथा उनके मित्रो का वध करें | हे लक्ष्मीपति कृष्ण! इससे हमें क्या लाभ होगा? और अपने ही कुटुम्बियों को मार कर हम किस प्रकार सुखी हो सकते हैं?
Shlok 31:
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ।
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ।।
अनुवाद: हे जनार्दन! यद्यपि लोभ से अभिभूत चित्त वाले ये लोग अपने परिवार को मारने या अपने मित्रो से द्रोह करने में कोई दोष नहीं देखते, किन्तु हम लोग, जो परिवार के विनष्ट करने में अपराध देख सकते हैं, ऐसे पापकर्मो में क्यों प्रवर्त हों?
Shlok 32:
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥
अनुवाद: कुल का नशा होने पर सनातन कुल-परम्परा नष्ट हो जाती है और इस तरह शेष कुल भी अधर्म में प्रवर्त हो जाता हैं |
Shlok 33:
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ॥
अनुवाद: हे कृष्ण! जब कुल में अधर्म प्रमुख हो जाता है तो कुल की स्त्रिया दूषित हो जाती हैं और स्त्रीत्व के पतन से हे वृष्णिवंशी! अवांछित संताने उत्पन होती हैं |
Shlok 34:
संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥
अनुवाद: अवांछित संतानों की वृद्धि से निश्चय ही परिवार के लिए तथा पारिवारिक परम्परा को विनिष्ट करने वालों के लिए नारकीय जीवन उत्पन्न होता है | ऐसे पतित कुलो के पुरखे गिर जाते हैं क्योंकि उन्हें जल तथा पिण्ड दान देने की क्रियाएं समाप्त हो जाती हैं |
Shlok 35:
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥
अनुवाद: जो लोग कुल-परम्परा को विनष्ट करते हैं और इस तरह अवांछित संतानों को जन्म देते हैं उनके दुष्कर्मो से समस्त प्रकार की सामुदयिक योजनाएँ तथा पारिवारिक कल्याण कार्य विनष्ट हो जाते हैं |
Shlok 36:
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥
अनुवाद: हे प्रजापालक कृष्ण! मैने गुरु-परम्परा से सुना है की जो लोग कुल धर्म को विनाश करते हैं, वे सदैव नरक में वास करते हैं |
Shlok 37:
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥
अनुवाद: ओह! कितने आश्चर्य की बात है की हम सब जघन्य पापकर्म करने के लिए उद्धत हो रहे हैं | राजएसुख भोगने की इच्छा से प्रेरित होकर हम अपने ही सम्बन्धियों को मारने पर तुले हैं |
Shlok 38:
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥
अनुवाद: यदि शास्त्र धरी धृतराष्ट्र के पुत्र निहथे तथा रणभूमि में प्रतिरोध न करने वाले को मारें, तो यह मेरे लिए श्रेयस्कर होगा |
Shlok 39:
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥
अनुवाद: संजय ने कहा – युद्धभूमि में इस प्रकार कह कर अर्जुन ने अपना धनुष तथा बाण एक ओर रख दिया और शोकसंतत्प चित्त से रथ के आसन पर बैठ गया |
निष्कर्ष
भगवद गीता, हमें जीवन के अर्थ और धर्म के महत्वपूर्ण सवालों पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है। इसके उपदेश न केवल हमें धार्मिक तत्वों के समझने की दिशा में आगे बढ़ाते हैं, बल्कि हमें अपने कर्तव्यों के प्रति संबोधित करते हैं और हमें जीवन के हर पहलू को समझने के लिए प्रेरित करते हैं। इसके माध्यम से हम जीवन के विभिन्न पहलूओं के बारे में गहराई से सोच सकते हैं और सही मार्ग पर चल सकते हैं। भगवद गीता के माध्यम से हमें एक संतुलित और उदार मानवीय समाज की दिशा में अधिक समझ मिलती है, जो हमें एक सही, सकारात्मक और प्रेरणादायक जीवन जीने की प्रेरणा देता है।
आने वाले ब्लॉग में हम भगवद गीता अध्याय 2 की महत्वपूर्ण शिक्षाओं और उनके आधुनिक जीवन में उपयोगिता पर चर्चा करेंगे।