भगवद्गीता का दसवां अध्याय (Bhagwat Geeta Adhyay in Hindi) भगवान श्रीकृष्ण के अद्भुत ऐश्वर्य और दिव्य गुणों का वर्णन करता है। अर्जुन के प्रति अपनी विशेष कृपा दर्शाते हुए, भगवान श्रीकृष्ण उन्हें अपने प्रमुख दिव्य रूपों और अद्वितीय शक्तियों का विस्तार से वर्णन करते हैं। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि कैसे वे इस सम्पूर्ण सृष्टि के आधार, निर्माता और नियंता हैं। यह अध्याय भगवान की महिमा और उनकी अनंत शक्तियों को समझने का एक मार्गदर्शन प्रदान करता है।
इस गीता ज्ञान (Geeta Gyan) से अर्जुन को भगवान की अनंत शक्तियों और दिव्यता का बोध होता है, जो भक्तों के लिए मार्गदर्शन और प्रेरणा का स्रोत है।
भगवद गीता अध्याय 10 श्लोक (Bhagwat Geeta Adhyay 10 Shlok)
Shlok 1
भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः ।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥
अनुवाद: श्रीभगवान ने कहा – हे महाबाहु अर्जुन! और आगे सुनो | चूँकि तुम मेरे प्रिय सखा हो, अतः मैं तुम्हारे लाभ के लिए ऐसा ज्ञान प्रदान करूँगा, जो अभी तक मेरे द्वारा बताये गए ज्ञान से श्रेष्ठ होगा |
Shlok 2
न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥
अनुवाद: न तो देवतागण मेरी उत्पति या ऐश्वर्य को जानते हैं और न मेहऋषिगण ही जानते हैं क्योंकि मैं सभी प्रकार से देवताओं और महृषियो का भी कारणस्वरूप हूँ |
Shlok 3
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥
अनुवाद: जो मुझे अजन्मा, अनादि, समस्त लोकों के स्वामी के रूप में जानता है, मनुष्यों में केवल वही मोहरहित और समस्त पापों से मुक्त होता है |
Shlok 4
बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः ।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥
अनुवाद: बुद्धि, ज्ञान, संशय तथा मोह से मुक्ति, क्षमाभाव, सत्यता, इन्द्रियनिग्रह, माननिग्रह, सुख तथा दुःख, जन्म, मृत्यु, भय, अभय, अहिंसा, समता, तुष्टि, तप, दान, यश तथा अपयश – जीवों के ये विविध गुण मेरे ही द्वारा उत्पन्न हैं |
Shlok 5
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥
अनुवाद: सप्तऋषिगण तथा उनसे भी पूर्व चार अन्य महृषि एवं सारे मनु सब मेरे मन से उत्पन्न हैं और विभिन्न लोकों में निवास करने वाले सारे जीव उनसे अवतरित होते हैं |
Shlok 6
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥
अनुवाद: जो मेरे इस ऐश्वर्य तथा योग से पूर्णतया आश्श्वत है, वह मेरी अनन्य भक्ति में तत्पर होता है | इसमें तनिक भी संदेह नहीं है |
Shlok 7
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥
अनुवाद: मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से अदभुत है | जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हियँ तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं |
Shlok 8
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥
अनुवाद: मेरे शुद्धभक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परम संतोष तथा आनंद का अनुभव करते हैं |
Shlok 9
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥
अनुवाद: जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |
Shlok 10
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥
अनुवाद: मैं उन पर विशेष कृपा करने के हेतु उनके हृदयों में वास करते हुए ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा अज्ञानजन्य अंधकार को दूर करता हूँ |
Shlok 11
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥
आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा ।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥
अनुवाद: अर्जुन ने कहा – आप परम भगवान्, परम धाम, परम पवित्र, परम सत्य हैं | आप नित्य, दिव्य, आदि पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं | नारद, असित, देवल तथा व्यास जैसे ऋषि आपके इस सत्य की पुष्टि करते हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं |
Shlok 12
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥
अनुवाद: हे कृष्ण! आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूँ | हे प्रभु! न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरूप को समझ सकते हैं |
Shlok 13
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥
अनुवाद: हे परमपुरुष, हे सबके उद्गम, हे समस्त प्राणियों के स्वामी, हे देवों के देव, हे ब्रह्माण के प्रभु! निसंदेह एकमात्र आप ही अपने को अपनी अंतरागशक्ति से जानने वाले हैं |
Shlok 14
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥
अनुवाद: कृपा करके विस्तारपूर्वक मुझे अपने उन दैवी ऐश्वर्यो को बतायें, जिनके द्वारा आप इन समस्त लोकों में व्याप्त हैं |
Shlok 15
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् ।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥
अनुवाद: हे कृष्ण, हे परम योगी! मैं किस तरह आपका चिन्तन करूँ और आपको कैसे जांनू ? हे भगवान्! आपका स्मरण किन किन रूपों में किया जाए |
Shlok 16
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥
अनुवाद: हे जनार्दन! आप पुनः विस्तार से अपने ऐश्वर्य तथा योगशक्ति का वर्णन करें | मैं आपके विषय में सुनकर कभी तृप्त नहीं होता हूँ, क्योंकि जितना ही आपको विषय में सुनता हूँ, अपना ही आपके शब्द अमृत को चखना चाहता हूँ |
Shlok 17
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥
अनुवाद: श्रीभगवान ने कहा – हाँ, अब मैं तुमसे अपने मुख्य मुख्य वैभवयुक्त रूपों का वर्णन करूँगा, क्योंकि हे अर्जुन! मेरा ऐश्वर्य असीम है |
Shlok 18
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥
अनुवाद: हे अर्जुन! मैं समस्त जीवों के हृदयों में स्थित परमात्मा हूँ | मैं ही समस्त जीवों का आदि, मध्य तथा अन्त हूँ |
Shlok 19
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् ।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥
अनुवाद: मैं आदित्यों में विष्णु, प्रकाशों में तेजस्वी सूर्य, मरुतों में मरीचि तथा नक्षत्रों में चन्द्रमा हूँ |
Shlok 20
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।
इंद्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥
अनुवाद: मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में स्वर्ग का राजा इंद्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ तथा समस्त जीवों में जीवनीशक्ति हूँ |
Shlok 21
रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् ।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् ॥
अनुवाद: मैं समस्त रुद्रों में शिव हूँ, यक्षों तथा राक्षसों में सम्पति का देवता हूँ, वस्तुओं में अग्नि हूँ और समस्त पर्वतों में मेरु हूँ |
Shlok 22
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् ।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ॥
अनुवाद: हे अर्जुन! मुझे समस्त पुरोहितों में मुख्य पुरोहित ब्रहस्पति जानो | मैं ही समस्त सेनानायकों में कार्तिकेय हूँ और समस्त जलाशयों में समुद्र हूँ |
Shlok 23
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् ।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥
अनुवाद: मैं मह्रिश्यों में भृगु हूँ, वाणी में दिव्य ओंकार हूँ, समस्त यज्ञों में पवित्र नाम का कीर्तन तथा समस्त अंचलों में हिमालय हूँ |
Shlok 24
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः ।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ॥
अनुवाद: मैं समस्त वृक्षों में अश्वस्थ वृक्ष हूँ और देवऋषिओं में नारद हूँ | मैं गन्धर्वो में चित्ररथ हूँ और सिद्ध पुरुषों कपिल मुनि हूँ |
Shlok 25
उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्धवम् ।
एरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम् ॥
अनुवाद: घोड़ो में मुझे उच्चैः श्रवा जानो, जो अमृत के लिए समुद्र मंथन के समय उत्पन्न हुआ था | गजराजों में मैं ऐरावत हूँ तथा मनुष्यों में राजा हूँ |
Shlok 26
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक् ।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥
अनुवाद: मैं हथियारों में वज्र हूँ, गायों में सुरभि, संतति उत्पति के कारणों में प्रेम का देवता कामदेव तथा सर्पों में वासुकी हूँ |
Shlok 27
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् ।
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥
अनुवाद: अनेक फणों वाले नागों में मैं अनंत हूँ और जलचरों में वरुणदेव हूँ | मैं पितरों में अर्यमा हूँ तथा नियमों के निर्वाहकों में मैं मृत्युराज यम हूँ |
Shlok 28
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम् ।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ॥
अनुवाद: दैत्यों में मैं भक्तराज प्रहाद हूँ, दमन करने वालों में काल हूँ, पशुओं में सिंह हूँ तथा पक्षिओं में गुरुङ हूँ |
Shlok 29
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् ।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥
अनुवाद: समस्त पवित्र करने वालों में मैं वायु हूँ, शस्त्रधारियों में राम, मछलियों में मगर तथा नदियों में गंगा हूँ |
Shlok 30
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ॥
अनुवाद: हे अर्जुन! मैं समस्त सृष्टियों का आदि, मध्य और अन्त हूँ | मैं समस्त विधयों में अध्यात्म विध्या हूँ और तर्कशास्त्रियों में मैं निर्णायक सत्य हूँ |
Shlok 31
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वंद्वः सामासिकस्य च ।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥
अनुवाद: अक्षरों में मैं अकार हूँ और समासों में द्वंद समास हूँ | मैँ शाश्वत काल भी हूँ और श्रेष्टाओं में ब्रम्हा हूँ |
Shlok 32
मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् ।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥
अनुवाद: मैं सर्वभक्षी मृत्यु हूँ और मैं ही आगे होने वालों को उत्पन्न करने वाला हूँ | स्त्रियों में मैं कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेघा, धृति तथा क्षमा हूँ |
Shlok 33
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः॥
अनुवाद: मैँ सामवेद के गीतों में बृहत्साम हूँ और छंदो में गायत्री हूँ | समस्त महीनों में मैँ मार्गशीर्ष तथा समस्त ऋतुओं में फूल खिलाने वाली वसंत ऋतु हूँ |
Shlok 34
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ॥
अनुवाद: मैं छलियों में जुया हूँ और तेजस्वियों में तेज हूँ | मैं विजय हूँ, साहस हूँ और बलवानों का बल हूँ |
Shlok 35
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥
अनुवाद: मैं वृषणुवंशियो में वासुदेव और पाण्डवों में अर्जुन हूँ | मैं समस्त मुनियों में व्यास तथा महान विचारकों में उशना हूँ |
Shlok 36
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् ।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ॥
अनुवाद: अराजकता को दमन करने वाले समस्त साधनों में से मैं दण्ड हूँ और जो विजय के आकांशी हैं, उनकी मैं नीति हूँ | रहस्यों में मैं मौन हूँ और बुद्धिमानों में ज्ञान हूँ |
Shlok 37
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥
अनुवाद: एहि नहीं, हे अर्जुन! मैं समस्त सृष्टि का जनक बीज हूँ | ऐसा चर तथा अचर कोई भी प्राणी नहीं है, जो मेरे बिना रह सके |
Shlok 38
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप ।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ॥
अनुवाद: हे परन्तप! मेरी दैवी विभूतियों का अन्त नहीं है | मैंने तुमसे जो कुछ कहा, वह तो मेरी अन्नत विभूतियों का संकेत मात्र है |
Shlok 39
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥
अनुवाद: तुम जान लो की सारा ऐश्वर्य, सौंदर्य तथा तेजस्वी सृष्टियाँ मेरे तेज के एक स्फुलिंग मात्र से उद्भूत हैं |
Shlok 40
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥
अनुवाद: किन्तु हे अर्जुन! इस सारे विशद ज्ञान की आवश्यकता क्या है? मैं तो एप एक अंश मात्र से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर इसको धारण करता हूँ |
भगवद्गीता का दसवां अध्याय (Bhagwat Geeta Adhyay 10 in Hindi) भगवान श्रीकृष्ण के अद्वितीय ऐश्वर्य और अनंत शक्तियों का विस्तृत वर्णन करता है। अर्जुन के प्रति अपनी विशेष कृपा दर्शाते हुए, भगवान उन्हें अपने दिव्य रूपों और शक्तियों से अवगत कराते हैं। यह गीता ज्ञान (Geeta Gyan) न केवल अर्जुन के लिए बल्कि सभी भक्तों के लिए प्रेरणा और मार्गदर्शन का स्रोत है, जिससे वे भगवान की महिमा और दिव्यता को समझकर अपने जीवन में सकारात्मकता और समर्पण ला सकते हैं। इस अध्याय का अध्ययन हमें आत्मज्ञान और भक्ति के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
आने वाले ब्लॉग में हम भगवद गीता अध्याय 11 की महत्वपूर्ण शिक्षाओं और उनके आधुनिक जीवन में उपयोगिता पर चर्चा करेंगे।