Bhagwat Geeta Adhyay 4 in Hindi | भगवद गीता अध्याय 4: दिव्य ज्ञान

Bhagwat Geeta Adhyay 4 in Hindi

भगवद गीता का चौथा अध्याय, “दिव्य ज्ञान” के नाम से जाना जाता है। इस अध्याय में भगवान कृष्ण अर्जुन को दिव्य ज्ञान की महिमा और महत्व के बारे में बताते हैं। इस ज्ञान को भगवान द्वारा समय-समय पर पुनः स्थापित किया जाता है जब धर्म का पतन और अधर्म का उत्थान होता है। दिव्य ज्ञान, न केवल अर्जुन के लिए बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए मार्गदर्शन का स्रोत है।

दिव्य ज्ञान (Divya Gyan) का अर्थ

भगवद गीता ज्ञान महाभारत के युद्ध के समय की घटना है, जब अर्जुन युद्ध के मैदान में अपने ही सगे-संबंधियों के साथ युद्ध करने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं होते। इस समय भगवान कृष्ण ने अर्जुन को ज्ञान प्रदान कर उनके संशयों का निवारण किया। दिव्य ज्ञान का यह उपदेश उसी समय के सामाजिक, धार्मिक, और दार्शनिक संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण था।

भगवद गीता अध्याय 4 श्लोक (Bhagwat Geeta Adhyay 4 Shlok)

भगवत गीता अध्याय 4 के श्लोक और उनका अनुवाद इस प्रकार है।

Shlok 1

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌ ।

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌ ॥

 

अनुवाद: भगवन श्रीकृष्ण ने कहा – मैंने इस अमर योगविध्या का उपदेश सूर्यदेव विवस्वान जी दिया और विवस्वान ने मनुष्यों के पिता मनु को उपदेश दिया और मनु ने इसका उपदेश इश्वाकु को दिया |

 

Shlok 2

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥

 

अनुवाद: इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजशरियो ने इसी विधि से इसे समझा | किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अतः यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है |

 

Shlok 3

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्‌ ॥

 

अनुवाद: आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग यानी परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, तुमसे कहा जा रहा है, क्योंकि तुम मेरे भक्त तथा मित्र हो, अतः तुम इस विज्ञान के दिव्य रहस्य को समझ सकते हो |

 

Shlok 4

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥

 

अनुवाद: अर्जुन ने कहा – सूर्यदेव विवस्वान आप से पहले हो चुके हैं, तो फिर मैं कैसे समझूँ की प्रारम्भ में भी आपने उन्हें इस विद्या का उपदेश दिया था |

 

Shlok 5

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥

 

अनुवाद: श्रीभगवान ने कहा – तुम्हारे तथा मेरे अनेकानेक जन्म हो चुके हैं | मुझे तो उन सबका स्मरण है, किन्तु हे परंतप! तुम्हे उनका स्मरण नहीं रह सकता है |

 

Shlok 6

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्‌ ।

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥

 

अनुवाद: यद्धपि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ और यद्धपि मैं समस्त जीवों का स्वामी हूँ, तो भी प्रत्येक युग में मैं अपने आदि दिव्य रूप में प्रकट होता हूँ |

 

Shlok 7

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥

 

अनुवाद: हे भारतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती हैं, तब तब मैं अवतार लेता हूँ |

 

Shlok 8

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥

 

अनुवाद: भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |

 

Shlok 9

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः ।

त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥

 

अनुवाद: हे अर्जुन! जो मेरे आविर्भाव तथा कर्मो की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |

 

Shlok 10

वीतरागभय क्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।

बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥

 

अनुवाद: आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त होकर, मुझमें पूर्णतया तमन्य होकर और मेरी शरण में आकर बहुत से व्यक्ति भूत काल में मेरे ज्ञान से पवित्र हो चुके है | इस प्रकार से उन सबों ने मेरे प्रति दिव्यप्रेम को प्राप्त किया है |

 

Shlok 11

ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्‌ ।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥

 

अनुवाद: जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ | हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है |

 

Shlok 12

काङ्‍क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।

क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥

 

अनुवाद: इस संसार में मनुष्य सकाम कर्मो में सिद्धि चाहते हैं, फलस्वरूप वे देवताओं की पूजा करते हैं | निस्संदेह इस संसार में मनुष्यों को सकाम कर्म का फल शीघ्र प्राप्त होता है |

 

Shlok 13

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।

तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌ ॥

 

अनुवाद: प्रकृति के तीनों गुणों और उनसे सम्ब्नध कर्म के अनुसार मेरे द्वारा मानव समाज के चार विभाग रचे गए | यधपि मैं इस वयवस्था का स्पष्ट हूँ, किन्तु तुम यह जान लो की मैं इतने पर भी अव्यय अकर्ता हूँ |

 

Shlok 14

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।

इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥

 

अनुवाद: मुझ पर किसी कर्म का प्रभाव नहीं पड़ता, न ही मैं कर्मफल की कामना करता हूँ | जो मेरे सम्बन्ध में सत्य को जानता है, वह भी कर्मो के फल के पाश में नहीं बंधता |

 

Shlok 15

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।

कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्‌ ॥

 

अनुवाद: प्राचीन काल में समस्त मुक्तात्माओं ने मेरा दिव्य प्रकृति को जान करके ही कम किया, अतः तुम्हे चाहिए की उनके पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करो |

 

Shlok 16

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌॥

 

अनुवाद: कर्म क्या है और अकर्म क्या है, इसे निश्चित करने में बुद्धिमान व्यक्ति भी मोहग्रस्त हो जाते हैं | अतएव मैं तुमको बातयूंगा की कर्म क्या है, जिसे जानकर तुम सारे अशुभ से मुक्त हो सकोगे |

 

Shlok 17

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥

 

अनुवाद: कर्म की बारीकियों को समझना अत्यन्त कठिन है | अतः मनुष्य को चाहिए की वह ठीक से जाने की कर्म क्या है, विकर्म क्या है और अकर्म क्या है |

 

Shlok 18

कर्मण्य कर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।

स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्‌ ॥

 

अनुवाद: जो मनुष्य कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वह सभी मनुष्यों में बुद्धिमान ही और सब्र प्रकार के कर्मो में प्रवृत रहकर भी दिव्य स्थिति में रहता है |

 

Shlok 19

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।

ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ॥

 

अनुवाद: जिस व्यक्ति का प्रत्येक प्रयास इन्द्रियतृप्ति की कामना से रहित होता है, उसे पूर्णज्ञानी समझा जाता है | उसे ही साधू पुरुष ऐसा कर्ता कहते हैं, जिसने पूर्णज्ञान की अग्नि से कर्मफलों को भस्मसात कर दिया है |

 

Shlok 20

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः ।

कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः ॥

 

अनुवाद: अपने कर्मफलों की सारी आसक्ति को त्याग कर सदैव संतुष्ट तथा स्वतंत्र रहकर यह सभी प्रकार के कार्यो में व्यस्त रहकर भी कोई सकाम कर्म नहीं करता |

 

Shlok 21

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।

शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌ ॥

 

अनुवाद: ऐसा ज्ञानी पुरुष पूर्णरूप से सयंमित मन तथा बुद्धि से कार्य करता है, अपनी सम्पति के सारे स्वामित्व को त्याग देता है और केवल शरीर निर्वाह के लिए कर्म करता है | इस तरह कार्य करता हुआ वह पाप रुपी फलों से प्रभावित नहीं होता है |

 

Shlok 22

यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः ।

समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥

 

अनुवाद: जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो दुवंद से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं |

 

Shlok 23

गतसङ्‍गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।

यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥

 

अनुवाद: जो पुरुष प्रकृति के गुणों के प्रति अनासक्त है और जो दिव्य ज्ञान में पूर्णतया स्थित है, उसके सारे कर्म ब्रम्हा में लीन हो जाते हैं |

 

Shlok 24

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्‌ ।

ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥

 

अनुवाद: जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत में पूर्णतया लीं रहता है, उसे अपने आध्यात्मिक कर्मो के योगदान के कारण अवश्य ही भगवद्धाम की प्राप्ति होती है, क्योंकि उसमे हवन आध्यात्मिक होता है और हवि भी आध्यात्मिक होती है |

 

Shlok 25

दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।

ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥

 

अनुवाद: कुछ योगी विभिन्न प्रकार के यज्ञों द्वारा देवताओं की भलीभांति पूजा करते हैं और कुछ परब्र्रम्हा रुपी अग्नि में आहुति डालते हैं |

 

Shlok 26

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।

शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥

 

अनुवाद: इनमे से कुछ श्रवणादि क्रियाओं तथा इन्द्रियों को मन की नियंत्रण रुपी अग्नि में स्वाहा कर देते हैं तो दूसरे लोग इन्द्रियविषयों को इन्द्रियों की अग्नि में स्वाहा कर देते हैं |

 

Shlok 27

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।

आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥

 

अनुवाद: दूसरे, जो मन तथा इन्द्रियों को वश में करके आत्म साक्षरता करना चाहते हैं, सम्पूर्ण इन्द्रियों तथा प्राणवायु के कार्यो को सयंमित मन रुपी अग्नि में आहुति कर देते हैं |

 

Shlok 28

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।

स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥

 

अनुवाद: कठोर व्रत अंगीकार करके कुछ लोग अपनी सम्पति का त्याग करके, कुछ कठिन तपस्या द्वारा, कुछ अष्टंग योगपद्धति के अभ्यास द्वारा अथवा दिव्यज्ञान में उन्नति करने के लिए वेदों के अध्यन्न द्वारा प्रबुद्ध बनते हैं |

 

Shlok 29

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।

प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥

 

अनुवाद: अन्य लोग भी हैं, जो समाधि में रहने के लिए श्रास्व को रोके रहते है | वे अपान में प्राण को और प्राण में अपान को रोकने का अभ्यास करते हैं और अंत में प्राण अपान को रोककर समाधि में रहते हैं | अन्य योगी काम भोजन करके प्राण की प्राण में ही आहुति देते हैं |

 

Shlok 30

सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः |

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्‌ ||

 

अनुवाद: ये सभी यज्ञ करने वाले यज्ञों का अर्थ जानने के कारण पापकर्मो से मुक्त हो जाते हैं और यज्ञो के फल रुपी अमृत को चखकर परम दिव्य आकाश की और बढ़ते जाते है |

 

Shlok 31

नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥

 

अनुवाद: हे कुरुश्रेष्ठ! जब यज्ञ के बिना मनुष्य इस लोक में या इस जीवन में ही सुखपूर्वक नहीं रह सकता, तो फिर अगले जन्म में कैसे रह सकेगा |

 

Shlok 32

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।

कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥

 

अनुवाद: ये विभिन्न प्रकार के यज्ञ वेदसमत हैं और ये सभी विभिन्न प्रकार के कर्मो से उत्पन्न हैं | इन्हे इस रूप में जानने पर तुम मुक्त हो जाओगे |

 

Shlok 33

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।

सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥

 

अनुवाद: हे परंतप! दृविज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है | हे पार्थ! अंततोगत्वा सारे कर्मयज्ञो का अवसान दिव्य ज्ञान में होता है |

 

Shlok 34

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥

 

अनुवाद: तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो | उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो | स्वरूपपसिद्ध व्यक्ति तुम्हे ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है |

 

Shlok 35

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।

येन भुतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥

 

अनुवाद: स्वरूपपसिद्ध व्यक्ति से वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर चुकने पर तुम पुनः कभी ऐसे मोह को प्राप्त नहीं होगे क्योंकि इस ज्ञान के द्वारा तुम देख सकोगे की सभी जीव परमात्मा के अंशस्वरूप हैं, अथार्त वे सब मेरे है |

 

Shlok 36

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।

सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥

 

अनुवाद: यदि तुम समस्त पापियों में भी सर्वाधिक पापी समझा जाये तो भी तुम दिव्यज्ञान रुपी नाव में स्थित होकर दुःख सागर को पार करने में समर्थ होंगे |

 

Shlok 37

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।

ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥

 

अनुवाद: जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, उसी तरह हे अर्जुन! ज्ञान रुपी अग्नि भौतिक कर्मो के समस्त फलों को जला डालती है |

 

Shlok 38

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।

तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥

 

अनुवाद: इस संसार में दिव्यज्ञान के समान कुछ भी उदात्त तथा शुद्ध नहीं है | ऐसा ज्ञान समस्त योग का परिपक्य फल है | जो व्यक्ति भक्ति में सिद्ध हो जाता है, यह यथासमय अपने अंतर में इस ज्ञान का आस्वादन करता है |

 

Shlok 39

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।

ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥

 

अनुवाद: जो श्रदालु दिव्यज्ञान में समर्पित है और जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकारी है और इसे प्राप्त करते ही वह तुरंत आध्यात्मिक शांति को प्राप्त होता है |

 

Shlok 40

अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥

 

अनुवाद: किन्तु जो अज्ञानी तथा शरद्धविहीन व्यक्ति शास्त्रों में संदेह करते है, ये भगवदभावनामृत नहीं प्राप्त करते, अपितु नीचे गिर जाते हैं | सायंशयात्मा के लिए  तो इस लोक में, न ही परलोक में कोई सुख है |

 

Shlok 41

योगसन्नयस्तकर्माणं ज्ञानसञ्न्निसंशयम्‌ ।

आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥

 

अनुवाद: जो व्यक्ति अपने कर्मफलों का परित्याग करते हुए भक्ति करता है और जिसके संशय दिव्यज्ञान द्वारा विनष्ट हो चुके होते हैं, वही वास्तव में आत्मपरायण है | हे धनंजय! वह कर्मो के बंधन से नहीं बंधता |

 

Shlok 42

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।

छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥

अनुवाद: अतएव तुम्हारे हृदय में अज्ञान के कारण जो संशय उठे हैं उन्हें ज्ञानरूपी शस्त्र से काट डालो | हे भारत! तुम योग से संवनित होकर खड़े होओ और युद्ध करो |

आने वाले ब्लॉग में हम भगवद गीता अध्याय 5 की महत्वपूर्ण शिक्षाओं और उनके आधुनिक जीवन में उपयोगिता पर चर्चा करेंगे।

निष्कर्ष (Conclusion)

दिव्य ज्ञान (Divya Gyan), भगवद गीता हिंदी के चौथे अध्याय (Bhagwat Geeta Adhyay 4 in Hindi) में वर्णित ज्ञान का वह रूप है जो आत्मा, परमात्मा और धर्म के वास्तविक स्वरूप को उजागर करता है। यह ज्ञान व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार, मोक्ष, और धर्म के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है। भगवद गीता में भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को प्रदान किया गया यह ज्ञान न केवल तत्कालीन समाज के लिए बल्कि आज के युग में भी अत्यंत प्रासंगिक है। यह ज्ञान हमें जीवन के वास्तविक उद्देश्य को समझने और अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है। इसलिए, दिव्य ज्ञान को समझना और आत्मसात करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है।

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