जब भी जीवन में समस्याएँ आती हैं, जब भी हम सही मार्ग से भटक जाते हैं या हमारे मन में संदेह उत्पन्न होता है, तो हमें अक्सर मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। इसी संदर्भ में, भगवद गीता के पाँचवें अध्याय (Bhagwat Geeta Adhyay 5 in Hindi) हमारे लिए एक अद्वितीय स्रोत बनता है। यह अध्याय न केवल हमारे कार्यों के प्रति दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है, बल्कि हमारे जीवन को कृष्णभावना से ओत-प्रोत कर देता है।
मुझे याद है जब मैंने पहली बार भगवद गीता ज्ञान के इस अध्याय को पढ़ा था। उस समय मेरे जीवन में अनेक उलझनें थीं और मन में शांति की कमी थी। जैसे ही मैंने इन श्लोकों को समझना शुरू किया, ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे हृदय में एक दीपक जला दिया हो। कर्मयोग ने मुझे सिखाया कि हम अपने कर्तव्यों को बिना किसी फल की इच्छा के कैसे पूर्ण कर सकते हैं और कैसे कृष्णभावना में लीन होकर जीवन को सच्चे अर्थों में जी सकते हैं।
आज, मैं आपको इसी अद्भुत और प्रेरणादायक अध्याय भगवत गीता अध्याय 5 (Bhagwat Geeta Adhyay 5 in Hindi) के बारे में बताने जा रहा हूँ, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग का महत्व समझाया है। यह न केवल हमारे कर्मों को सही दिशा में ले जाने का मार्गदर्शन देता है, बल्कि हमें आत्मिक शांति और जीवन के उच्चतम सत्य की प्राप्ति का मार्ग भी दिखाता है। तो आइए, इस दिव्य ज्ञान की ओर एक साथ कदम बढ़ाएं और भगवद गीता के पाँचवें अध्याय के माध्यम से अपने जीवन को एक नई दिशा दें।
भगवद गीता अध्याय 4 श्लोक (Bhagwat Geeta Adhyay 4 Shlok)
Shlok 1
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥
अनुवाद: अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण! पहले आप मुझसे कर्म त्यागने के लिए कहते हैं और फिर भक्तिपूर्वक कर्म करने का आदेश देते हैं | क्या आप अब कृपा करके निश्चित रूप से मुझे बतायेगे कि इन दोनों में से कोण अधिक लाभप्रद है ?
Shlok 2
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥
अनुवाद: श्रीभगवान ने उत्तर दिया – मुक्ति के लिए तो कर्म का परित्याग तथा भक्तिमय कर्म दोनों ही उत्तम हैं | किन्तु इन दोनों में से कर्म के परित्याग से भक्तियुक्त कर्म श्रेष्ठ है |
Shlok 3
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥
अनुवाद: जो पुरुष न तो कर्मफलों से घृणा करता है और न कर्मफल को इच्छा करता है, वह नित्य सन्यासी जाना जाता है | हे महाबाहु अर्जुन! ऐसा मनुष्य समस्त दवंदो से रहित होकर भवबंधन को पार कर पूर्णतया मुक्त हो जाता है |
Shlok 4
सांख्योगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥
अनुवाद: अज्ञानी ही भक्ति को भौतिक जगत के विश्लेषणात्मक अध्यन्न से भिन्न कहते हैं | जो वस्तुतः ज्ञानी हैं, वे कहते हैं की जो इनमे से किसी एक मार्ग का भलीभाँति अनुसरण करता है, वह दोनों के फल प्राप्त कर लेता है |
Shlok 5
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्यौगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥
अनुवाद: जो यह जानता है कि विश्लेषणात्मक अध्यन्न द्वारा प्राप्त स्थान भक्ति द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है, और इस तरह जो सांख्ययोग तथा भक्तियोग को एकसमान देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप में देखता है |
Shlok 6
सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥
अनुवाद: भक्ति में लगे बिना केवल समस्त कर्मो का परित्याग करने से कोई सुखी नहीं बन सकता | परन्तु भक्ति में लगा हुआ विचारवान व्यक्ति शीघ्र ही परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है |
Shlok 7
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥
अनुवाद: जो भक्तिभाव से कर्म करता है, जो विशुद्ध आत्मा है और अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में रखता है, वह सबों को प्रिय होता है और सभी लोग उसे प्रिय होते हैं | ऐसा व्यक्ति कर्म करता हुआ भी कभी नहीं बँधता |
Shlok 8
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित् ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन् ॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥
अनुवाद: दिव्य भावनामृत युक्त पुरुष देखतेम सुनते, स्पर्श करते, सूँघते, कहते, चलते फिरते, सोते तथा श्वास लेते हुए भी अपने अंतर में सदैव यही जानता रहा है की वास्तव में वह कुछ भी नहीं करता | बोलते, त्यागतें ग्रहण करते या आँखे खोलते बंद करते हुए भी वह यह जानता है की भौतिक इन्द्रियाँ अपने अपने विषयों में प्रवृत हैं और वह इन सबसे प्रथक है |
Shlok 9
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥
अनुवाद: जो व्यक्ति कर्मफलों को परमेश्वर को समर्पित करके आसक्तिरहित होकर अपना कर्म करता है, वह पापकर्मो से उसी प्रकार अप्रभावित रहता है, जिस प्रकार कमलपत्र जल से अस्पृश्य रहता है |
Shlok 10
कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥
अनुवाद: योगीजन आसक्तिरहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं |
Shlok 11
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥
अनुवाद: निश्चल भक्त शुद्ध शान्ति प्राप्त करता है क्योंकि वह समस्त कर्मफल मुझे अर्पित कर देता है, किन्तु जो व्यक्ति भगवान् से युक्त नहीं है और जो अपने श्रम का फलकामी है, वह बँध जाता है |
Shlok 12
सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥
अनुवाद: जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन से समस्त कर्मो का परित्याग कर देता है, तब वह नौ द्वारों वाले नगर में बिना कुछ किये कराये सुखपूर्वक रहता है |
Shlok 13
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥
अनुवाद: शरीर रुपी नगर का स्वामी देहधारी जीवात्मा न तो कर्म का सृजन करता है, न लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है, न ही कर्मफल की रचना करता है | यह सब तो प्रकृति के गुणों द्वारा ही किया जाता है |
Shlok 14
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥
अनुवाद: परमेश्वर न तो किसी के पापों को ग्रहण करता है, न पुण्यों को | किन्तु सारे देहधारी जीव उस अज्ञान के कारण मोहग्रस्त रहते हैं, जो उनके वास्तविक ज्ञान को आच्छादित किये रहता है |
Shlok 15
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥
अनुवाद: किन्तु जब कोई उस ज्ञान से प्रबुद्ध होता है, जिससे अविद्या का विनाश होता है, तो उसके ज्ञान से सब कुछ उसी तरह प्रकट हो जाता है, जैसे दिन में सूर्य से साड़ी वस्तुए प्रकाशित हो जाती हैं |
Shlok 16
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ॥
अनुवाद: जब मनुष्य की बुद्धि, मन, श्रद्धा तथा शरण सब कुछ भगवान् में स्थिर हो जाते हैं, तभी वह पूर्णज्ञान द्वारा समस्त कल्मष से शुद्ध होता है और मुक्ति के पथ पर अग्रसर होता है |
Shlok 17
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥
अनुवाद: विन्रम साधुपुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान तथा विनीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल को समान दृष्टि से देखते हैं |
Shlok 18
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥
अनुवाद: जिनके मन एकत्व तथा समता में स्थित हैं उन्होंने जन्म तथा मृत्यु के बंधनों को पहले ही जीत लिया है | वे ब्रम्हा के समान निर्दोष हैं और सदा ब्रम्हा में ही स्थित रहते हैं |
Shlok 19
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥
अनुवाद: जो न तो प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित होता है और न अप्रिय को पाकर विचलित होता है, जो स्थिरबुद्धि है, जो मोहरहित है और भगवदीघय को जानने वाला है वह पहले से ही ब्रह्मा में स्थित रहता है |
Shlok 20
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥
अनुवाद: ऐसा मुक्त पुरुष भौतिक इन्द्रियसुख की ओर आकृष्ट नहीं होता, अपितु सदैव समाधि में रहकर अपने अंतर में आनंद का अनुभव करता है | इस प्रकार सरूपसिद्ध व्यक्ति पारब्रम्हा में एकाग्रचित होक के कारण असीम सुख भोगता है |
Shlok 21
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥
अनुवाद: बुद्धिमान मनुष्य दुःख के कारणों में भाग नहीं लेता जो की भौतिक इन्द्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होते हैं | हे कुन्तीपुत्र! ऐसे भागों का आदि तथा अन्त होता है, अतः चतुर व्यक्ति उनमे आन्नद नहीं लेता |
Shlok 22
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥
अनुवाद: यदि इस शरीर को त्यागने के पूर्व कोई मनुष्य इन्द्रियों के बेगों को सहन करने तथा इच्छा एवं क्रोध के वेग को रोकने में समर्थ होता है, तो वह इस संसार में सुखी रह सकता हैं |
Shlok 23
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः ।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥
अनुवाद: जो अन्तः करण में सुख का अनुभव करता है, जो कर्मठ है और अन्त करण में ही रमण करता है तथा जिसका लक्ष्य अंतर्मुखी होता है वह सचमुच पूर्ण योगी है | वह परब्र्रम्हा में मुक्ति पता है और अंततोगत्वा ब्रह्म्हा को प्राप्त होता है |
Shlok 24
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥
अनुवाद: जो लोग संशय से उत्पन्न होने वाले द्वैत से परे हैं, जिनके मन आत्म साक्षरता में रत हैं, जो समस्त जीवों के कल्याणकार्य करने में सदैव व्यस्त रहते हैं और जो समस्त पापों से रहित हैं, वे ब्रम्हानिर्वाण को प्राप्त होते हैं |
Shlok 25
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् ।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥
अनुवाद: जो क्रोध तथा समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हैं, जो स्वरूपपसिद्ध आत्मसंयमी हैं और संसिद्धि के लिए निरंतर प्रयास करते हैं, उनकी मुक्ति निकट भविष्य में सुनिश्चित है |
Shlok 26
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ।
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥
अनुवाद: समस्त इन्द्रियविषयों को बाहर करके, दृष्टि को भौंहो के मध्य में केंद्रित करके, प्राण तथा अपान वायु को नथुनों के भीतर रोककर और इस तरह मन, इन्द्रियों तथा बुद्धि को वश में करके, जो मोक्ष को लक्ष्य बनाता है, वह योगी इच्छा भय तथा क्रोध से रहित हो जाता है | जो निरंतर इस अवस्था में रहता है, वह अवश्य ही मुक्त है |
Shlok 27
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥
अनुवाद: मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितौषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुःखों से शांति लाभ करता है |
आने वाले ब्लॉग में हम भगवद गीता अध्याय 6 (Bhagwat Geeta Adhyay 6) की महत्वपूर्ण शिक्षाओं और उनके आधुनिक जीवन में उपयोगिता पर चर्चा करेंगे।
निष्कर्ष (Conclusion)
इस यात्रा में, हमने भगवद गीता के पाँचवें अध्याय (Bhagwat Geeta Adhyay 5 in Hindi) के महत्वपूर्ण सन्देशों को समझा है और उन्हें अपने जीवन में अमल में लाने की प्रेरणा पाई है। यह अध्याय हमें यह सिखाता है कि हमारे कर्मों में आसक्ति नहीं रखते हुए भी हम कैसे जीवन का हर पहलू सम्मान देते हुए सच्चे धर्म का पालन कर सकते हैं। इसके माध्यम से हम अपने मन को शांत और स्थिर रखकर अपने कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं और अपने जीवन को एक उच्च स्तर पर ले जा सकते हैं।
भगवद गीता का यह अध्याय हमें यह भी सिखाता है कि समर्पण और सेवा के माध्यम से ही हम अपने आप को असली धर्म के प्रति समर्पित कर सकते हैं। इसलिए, आइए हम सब मिलकर इस अद्वितीय ग्रंथ के सन्देशों को अपने जीवन में स्थायी रूप से शामिल करें और एक सकारात्मक बदलाव की दिशा में कदम बढ़ाएं। इस प्रकार, हम सभी अपने जीवन को एक समृद्ध, सम्मानित और परमात्मा के प्रति समर्पित बना सकते हैं।