Bhagwat Geeta Adhyay 6 in Hindi | भगवद गीता अध्याय 6: ध्यानयोग

Bhagwat Geeta Adhyay 6 in Hindi | भगवद गीता अध्याय 6: ध्यानयोग

भगवद गीता का अध्याय 6 (Bhagwat Geeta Adhyay 6 in Hindi), जिसे ध्यान योग या आत्मसंयम योग भी कहा जाता है, एक महत्वपूर्ण अध्याय है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को ध्यान योग के माध्यम से आत्म-संयम और आत्म-साक्षात्कार की शिक्षा देते हैं। यह अध्याय युद्धभूमि में स्थित अर्जुन की मानसिक स्थिति को स्थिर करने और आत्म-संयम के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त करने की दिशा में मार्गदर्शन करता है।

मुख्य विषय और शिक्षा:

श्री मदभागवत गीता ज्ञान (geeta gyan) के ध्यान योग अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि किस प्रकार एक योगी को आत्म-संयमित और ध्यानमग्न होना चाहिए। इस अध्याय में मानसिक शांति, आत्मसंयम, और ध्यान की प्रक्रिया का महत्व बताया गया है। अर्जुन और कृष्ण के बीच संवाद में प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं:

  • आत्म-संयम और ध्यान के माध्यम से आत्मज्ञान की प्राप्ति।
  • ध्यान योग की प्रक्रिया और उसका अभ्यास कैसे किया जाए।
  • आत्म-संयम और स्थिरता के माध्यम से आत्मा का साक्षात्कार।

भगवद गीता अध्याय 6 श्लोक (Bhagwat Geeta Adhyay 6 Shlok)

Shlok 1

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥

अनुवाद: श्रीभगवान ने कहा – जो पुरुष अपने कर्मफल के प्रति अनासक है और जो अपने कर्तव्य का पालन करता है, वही सन्यासी और असली योगी है | वह नहीं, जो न तो अग्नि जलाता है और न कर्म करता है |

Shlok 2

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसन्न्यस्तसङ्‍कल्पो योगी भवति कश्चन ॥

अनुवाद: हे पाण्डुपुत्र! जिसे सन्यास कहते हैं, उसे ही तुम योग अतार्थ परब्रम्ह से युक्त होना जानो क्योंकि इन्द्रियतृप्ति के लिए इच्छा को त्यागे बिना कोई कभी योगी नहीं हो सकता |

Shlok 3

आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥

अनुवाद: अष्टांग योग के नवसाधक के लिए कर्म साधन कहलाता है और योगसिद्ध पुरुष के लिए समस्त भौतिक कार्यकलापों का परित्याग ही साधन कहा जाता है |

Shlok 4

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्‍कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ॥

अनुवाद: जब कोई पुरुष समस्त भौतिक इच्छाओं का त्याग करके न तो इन्द्रियतृप्ति के लिए कार्य करता है और न स्कॉमकर्मों में प्रवृत होता है तो वह योगारूढ़ कहलाता है |

Shlok 5

उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌ ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥

अनुवाद: मनुष्य को चाहिए की अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करे और अपने को नीचे न गिरने दे | यह मन बद्धजीव का मित्र भी है और शत्रु भी |

Shlok 6

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्‌ ॥

अनुवाद: जिसने मन को जीत लिया है, उसके लिए मन सर्वश्रेष्ठ मित्र है, किन्तु जो ऐसा नहीं कर पाया उसके लिए मन सबसे बड़ा शत्रु बना रहेगा |

Shlok 7

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥

अनुवाद: जिसने मन को जीत लिया है, उसने पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है, क्योंकि उसने शांति प्राप्त कर ली है | ऐसे पुरुष के लिए सुख दुःख, सर्दी गर्मी एवं मान अपमान एक से हैं |

Shlok 8

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः ॥

अनुवाद: वह व्यक्ति आत्म साक्षरत्कार को प्राप्त तथा योगी कहलाता है, जो अपने अर्जित ज्ञान तथा अनुभूति से पूर्णतया संतुष्ट रहता है | ऐसा व्यक्ति अध्यात्म को प्राप्त तथा जितेन्द्रिय कहलाता है | वह सभी वस्तुओं को – चाहे वे कंकण होम पत्थर हो या कि सोना – एकसमान देखता है |

Shlok 9

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥

अनुवाद: जब मनुष्य निष्कपट हितोषियों, प्रिय मित्रों, तटस्थों, मध्यस्थों, ईर्षालुओं, शत्रुओं तथा मित्रो, पुण्यात्माओं एवं पापियों को समान भाव से देखता है, तो वह और भी उन्नत मन जाता है |

Shlok 10

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥

अनुवाद: योगी को चाहिए कि वह सदैव अपने शरीर, मन तथा आत्मा को परमेश्वर में लगाए, एकान्त स्थान में रहे और बड़ी सावधानी के साथ अपने मन को वश में करे | उसे समस्त आकांक्षाओं तथा संग्रहभाव की इच्छाओं से मुक्त होना चाहिए |

Shlok 11

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्‌ ।
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥

अनुवाद: योगाभ्यास के लिए योगी एकांत स्थान में जाकर भूमि पर कुशा बिछा दे और फिर उसे मृगछाला से ढके तथा ऊपर से मुलायम वस्त्र बिछा दे | आसन न तो बहुत ऊँचा हो, न बहुत नीचा | यह पवित्र स्थान में स्थित हो | योगी को चाहिए कि इस पर दृढ़तापूर्वक बैठ जाये और मन, इन्द्रियों तथा कर्मो को वश में करते हुए तथा मन को एक बिंदु पर स्थिर करके हृदय को शुद्ध करने के लिए योगाभ्यास करे |

Shlok 12

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्‌ ।
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः ।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥

अनुवाद: योगाभ्यास करने वाले को चाहिए कि वह अपने शरीर, गर्दन तथा सिर को सीधा रखे और नाक के अगले सिर पर दृष्टि लगाए | इस प्रकार वह अविचलित तथा दमित मन से, भयरहित, विशयीजीवन से पूर्णतया मुक्त होकर अपने हृदय में मेरा चिंतन करे और मुझे ही अपना चरमलक्ष्य बनाए |

Shlok 13

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥

अनुवाद: इस प्रकार शरीर, मन तथा कर्म में निरंतर संयम का अभ्यास करते हुए सयंमित मन वाले योगी को इस भौतिक अस्तित्व की समाप्ति पर भगवद्धाम की प्राप्ति होती है |

Shlok 14

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥

अनुवाद: हे अर्जुन! जो अधिक खाता है या बहुत कम खाता है, जो अधिक सोता है अथवा जो प्रयाप्त नहीं सोता उसके योगी बनने की कोई संभावना नहीं है |

Shlok 15

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥

अनुवाद: जो खाने, सोने, आमोद प्रमोद तथा काम करने की आदतों में नियमित रहता है, वह योगाभ्यास द्वारा समस्त भौतिक क्लेशों को नष्ट कर सकता है |

Shlok 16

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥

अनुवाद: जब योगी योगाभ्यास द्वारा अपने मानसिक कार्यकलापों को वश में कर लेता है और अध्यात्म में स्थित हो जाता है अथार्त समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हो जाता है, तब वह योग में सुस्थिर कहा जाता है |

Shlok 17

यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥

अनुवाद: जिस प्रकार वायुरहित स्थान में दीपक हिलता डुलता नहीं, उसी तरह जिस योगी का मन वश में होता है, वह आत्मतत्व के ध्यान में सदैव स्थिर रहता है |

Shlok 18

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ।।
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्‍बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्‌ ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ।।
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ।।
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।

अनुवाद: सिद्धि की अवस्था में, जिसे समाधि कहते है, मनुष्य का मन योगाभ्यास के द्वारा भौतिक मानसिक क्रियाओं से पूर्णतया संयमित हो जाता है | इस सिद्धि की विशेषता यह है कि मनुष्य शुद्ध मन से अपने को देख सकता है और अपने आपमें आनंद उठा सकता है | उस आनंदमयी स्थिति में वेग दिव्य इन्द्रियों द्वारा असीम दिव्यसुख में स्थित रहता है | इस प्रकार स्थापित मनुष्य कभी सत्य से विपथ नहीं होता और इस सुख की प्राप्ति हो जाने पर वेग इससे बड़ा कोई दूसरा लाभ नहीं मानता | ऐसी स्थित को पाकर मनुष्य बड़ी से बड़ी कठिनाई में भी विचलित नहीं होता | यह निसंदेह भौतिक संसग्र से उत्पन्न होने वाले समस्त दुःखों से वास्तविक मुक्ति है |

Shlok 19

स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा
सङ्‍कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥

अनुवाद: मनुष्य को चाहिए कि संकल्प तथा श्रद्धा के साथ योगाभ्यास में लगे और पथ से विचलित न हो | उसे चाहिए की मनोधर्म से उत्पन्न समस्त इच्छाओं को निरपवाद रूप से त्याग दे और इस प्रकार मन के द्वारा सभी और से इन्द्रियों को वश में करे |

Shlok 20

शनैः शनैरुपरमेद्‍बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्‌ ॥

अनुवाद: धीरे धीरे, क्रमशः पूर्ण विश्वासपूर्वक बुद्धि के द्वारा समाधि में स्थित होना चाहिए और इस प्रकार मन को आत्मा में ही स्थित करना चाहिए तथा अन्य कुछ भी नहीं सोचना चाहिए |

Shlok 21

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्‌ ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्‌ ॥

अनुवाद: मन अपनी चंचलता तथा अस्थिरता के कारण जहाँ कहीं भी विचरण करता हो, मनुष्य को चाहिए कि उसे वहाँ से खींचे और अपने वश में लाए |

Shlok 22

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्‌ ।
उपैति शांतरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम्‌ ॥

अनुवाद: जिस योगी का मन मुझ में स्थिर रहता है, वह निश्चित ही दिव्यसुख की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करता है | वह रजोगुण से परे हो जाता है, वह परमात्मा के साथ अपनी गुणात्मक एकता को समझता है और इस प्रकार अपने समस्त विगत कर्मो के फल से निवृत हो जाता है |

Shlok 23

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥

अनुवाद: इस प्रकार योगाभ्यास में निरन्तर लगा रहकर आत्मसयंमी योगी समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है और भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में परमसुख प्राप्त करता है |

Shlok 24

सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥

अनुवाद: वास्तविक योगी समस्त जीवों में मुझको तथा मुझमें समस्त जीवों को देखता है | निसंदेह स्वरूपसिद्ध व्यक्ति मुझ परमेश्वर की सर्वत्र देखता है |

Shlok 25

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥

अनुवाद: जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मुझमें देखता है उसके लिए न तो मैं कभी अदृश्य होता हूँ और न वह मेरे लिए अदृश्य होता है |

Shlok 26

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥

अनुवाद: जो योगी मुझे तथा परमात्मा को अभिन्न जानते हुए परमात्मा की भक्तिपूर्वक सेवा करता है, वह हर प्रकार से मुझमे सदैव स्थित रहता है |

Shlok 27

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥

अनुवाद: हे अर्जुन! वह पूर्णयोगी है, जो अपनी तुलना से समस्त प्राणियों की उनके सुखों तथा दुःखों में वास्तविक समानता का दर्शन करता है |

Shlok 28

योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्‌ ॥

अनुवाद: अर्जुन ने कहा – हे मधुसुधन! आपने जिस योगपद्धति का संक्षेप में वर्णन किया है, वह मेरे लिए अव्यवाहरिक तथा असहनीय है, क्योंकि मन चंचल तथा अस्थिर है |

Shlok 29

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्‌ ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्‌ ॥

अनुवाद: हे कृष्ण! चूँकि मन चंचल, उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यंत बलवान है, अतः मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है |

Shlok 30

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्‌ ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥

अनुवाद: भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा – हे महाबाहु कुन्तीपुत्र! निसंदेह चंचल मन को वश में करना अत्यंत कठिन है, किन्तु उपयुक्त अभ्यास द्वारा तथा विरक्ति द्वारा ऐसा संभव है |

Shlok 31

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥

अनुवाद: जिसका मन उच्छृंखल है, उसके लिए आत्म साक्षरता कठिन कार्य होता है, किन्तु जिसका मन सयंमित है और जो समुचित उपाय करता है, उसकी सफलता ध्रुव है | ऐसा मेरा मत है |

Shlok 32

अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥

अनुवाद: अर्जुन ने कहा: हे कृष्ण! उस असफल योगी की गति क्या है, जो प्रारम्भ में श्रद्धापूर्वक आत्म साक्षरता की विधि ग्रहण करता है, किन्तु बाद में भौतिकता के कारण उससे विचलित हो जाता है और योगसिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता |

Shlok 33

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥

अनुवाद: हे महाबाहु कृष्ण! क्या ब्रम्हा प्राप्ति के मार्ग से भ्र्ष्ट ऐसा व्यक्ति आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों ही सफलताओं से च्युत नहीं होता और छिन्नभिन्न बादल की भाँति विनष्ट नहीं हो जाता, जिसके फलस्वरूप उसके लिए किसी लोक में कोई स्थान नहीं रहता?

Shlok 34

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥

अनुवाद: हे कृष्ण! एहि मेरा संदेह है, और मैं आपसे इसे पूर्णतया दूर करने की प्रार्थना कर रहा हूँ | आपके अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा नहीं है, जो इस संदेह को नष्ट कर सके |

Shlok 35

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥

अनुवाद: भगवान् ने कहा – हे पृथापुत्र! कल्याण कार्यो में निरत योगी का न तो इस लोक में और न परलोक में ही विनाश होता है | हे मित्र! भलाई करने वाला कभी बुराई से पराजित नहीं होता |

Shlok 36

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥

अनुवाद: असफल योगी पवित्रत्माओं के लोकों में अनेकानेक वर्षो तक भोग करने के बाद या तो सदाचारी पुरुषों के परिवार में या कि धनवानों के कुल में जन्म लेता है |

Shlok 37

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्‌ ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्‌ ॥

अनुवाद: अथवा (यदि दीर्घकाल तक योग करने के बाद असफल रहे तो) वह ऐसे योगियों के कुल में जन्म लेता है, जो अति बुद्धिमान हैं | निश्चय ही इस संसार में ऐसा जन्म दुर्लभ है |

Shlok 38

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्‌ ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥

अनुवाद: हे कुरुनन्दन! ऐसा जन्म पाकर वह अपने पूर्वजन्म की दैवी चेतना को पुनः प्राप्त करता है और पूर्ण सफलता प्राप्त करने के उदेश्य से वह आगे उनत्ति करने का प्रयास करता है |

Shlok 39

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥

अनुवाद: अपने पूर्वजन्म की दैवी चेतन से वह न चाहते हुए भी स्वतः योग के नियमों की ओर आकर्षित होता है | ऐसा जिज्ञासु योगी शास्त्रों के अनुष्ठानों से परे स्थित होता है |

Shlok 40

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो यात परां गतिम्‌ ॥

अनुवाद: और जब योगी समस्त कल्मष से शुद्ध होकर सच्ची निष्ठा से आगे प्रगति करने का प्रयास करता है, तो अन्ततोगत्वा अनेकानेक जन्मों के अभ्यास के पश्चात् सिद्धि लाभ करके वह परम गंतव्य को प्राप्त करता है |

Shlok 41

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥

अनुवाद: योगी पुरुष तपस्वी से, ज्ञानी से तथा स्कामकर्मी से बढ़कर होता है | अतः हे अर्जुन! तुम सभी प्रकार से योगी बनो |

Shlok 42

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥

अनुवाद: और समस्त योगियों में से जो योगी अत्यंत श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, अपने अन्तः करण में मेरे विषय में सोचता है और मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है, वह योग में मुझसे परम अंतरंग रूप में युक्त रहता है और सबों में सर्वोच्च है | यही मेरा मत है |

ध्यान योग के व्यावहारिक उपयोग:

आधुनिक जीवन में ध्यान योग के लाभ अनेक हैं, जैसे मानसिक शांति, आत्म-संयम, और व्यक्तिगत विकास। इस अध्याय से हम सीख सकते हैं कि कैसे ध्यान और आत्म-संयम के माध्यम से अपने जीवन को संतुलित और समृद्ध बना सकते हैं। नियमित ध्यान अभ्यास से तनाव कम होता है और मानसिक स्पष्टता बढ़ती है।

निष्कर्ष (Conclusion):

भगवद गीता अध्याय 6 (Bhagwat Geeta Adhyay 6 in Hindi) का सार यह है कि आत्म-संयम और ध्यान के माध्यम से आत्मज्ञान और मानसिक शांति प्राप्त की जा सकती है। इस अध्याय में दी गई शिक्षाओं को अपनाकर हम अपने जीवन को बेहतर बना सकते हैं और आंतरिक शांति प्राप्त कर सकते हैं। भगवद गीता हिंदी (bhagwat geeta gyan in hindi) का यह छटवां अध्याय हमें सिखाता है कि आत्म-संयम और ध्यान के माध्यम से ही सच्चे आत्मज्ञान की प्राप्ति संभव है।

आने वाले ब्लॉग में हम भगवद गीता अध्याय 7 की महत्वपूर्ण शिक्षाओं और उनके आधुनिक जीवन में उपयोगिता पर चर्चा करेंगे।

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