Bhagwat Geeta Adhyay 7 in Hindi | भगवद गीता अध्याय 7: भगवद्ज्ञान

Bhagwat Geeta Adhyay 7 in Hindi

श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 7 (Bhagwat Geeta Adhyay 7) का नाम “भगवद्ज्ञान” है। इस अध्याय में केवल 30 श्लोक हैं, भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मा और परमात्मा के ज्ञान के साथ-साथ इस संसार में उनकी विभूतियों और महिमाओं के बारे में विस्तार से बताते हैं। सातवां अध्याय गीता का एक महत्वपूर्ण और गूढ़ अध्याय है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को भौतिक और आध्यात्मिक ज्ञान का समन्वय सिखाते हैं। यहाँ भगवान बताते हैं कि किस प्रकार से आत्मा और परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर जीवन की वास्तविकता को समझा जा सकता है।

श्री मदभागवत गीता (geeta gyan) में ज्ञान भगवान श्रीकृष्ण सबसे पहले अर्जुन को बताते हैं कि संसार में जो भी वस्तुएं, प्राणी, और घटनाएँ हैं, वे सब उनकी ही विभूतियाँ हैं। वे कहते हैं कि सभी प्राणियों की उत्पत्ति उन्हीं से होती है और सभी चीजें उन्हीं में समाहित होती हैं। भगवान यहाँ स्पष्ट करते हैं कि उनके बिना यह सम्पूर्ण सृष्टि एक क्षण भी नहीं टिक सकती। यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि भगवान की विभूतियाँ केवल भौतिक ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक भी होती हैं।

भगवद गीता अध्याय 7 (Bhagwat Geeta Adhyay 7) की महत्वपूर्ण शिक्षाएँ

Shlok 1

मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः।

असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु॥

अनुवाद: श्रीभगवान ने कहा – हे पृथापुत्र! अब सुनो कि तुम किस तरह मेरी भावना से पूर्ण होकर और मन को मुझमें आसक्त करके योगाभ्यास करते हुए मुझे पूर्णतया संशयरहित जान सकते हो |

Shlok 2

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।

यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥

अनुवाद: अब मैं तुमसे पूर्णरूप से व्यवहारिक तथा दिव्यज्ञान कहूँगा | इसे जान लेने पर तुम्हें जानने के लिए और कुछ भी शेष नहीं रहेगा |

Shlok 3

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ॥

अनुवाद: कई हजार मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रत्यनशील होता है और इस तरह सिद्धि प्राप्त करने वालों में से विरला ही कोई एक मुझे वास्तव में जान पाता है |

Shlok 4

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।

अहङ्‍कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥

अनुवाद: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार – ये आठ प्रकार से विभक्त मेरी भिन्ना प्रकृतियाँ हैं |

Shlok 5

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्‌ ।

जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्‌ ॥

अनुवाद: हे महाबाहु अर्जुन! इनके अतिरिक्त मेरी एक अन्य परा शक्ति है, जो उन जीवों से युक्त है, जो इस भौतिक अपरा प्रकृति के साधनों का विदोहन कर रहे हैं |

Shlok 6

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।

अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥

अनुवाद: सारे प्राणियों का उद्गम इन दोनों शक्तियों में है | इस जगत में जो कुछ भी भौतिक तथा आध्यात्मिक है, उसकी उत्पति तथा प्रलय मुझे ही जानो |

Shlok 7

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।

मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥

अनुवाद: हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है | जिस प्रकार मोती धागे में गुंथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है |

Shlok 8

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।

प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥

अनुवाद: हे कुन्तीपुत्र! मैं जल का स्वाद हूँ, सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश हूँ, वैदिक मंत्रो में ओमकार हूँ, आकाश में ध्वनि हूँ तथा मनुष्य में सामर्थ्य हूँ |

Shlok 9

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।

जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥

अनुवाद: मैं पृथ्वी की आघ सुगंध और अग्नि की ऊष्मा हूँ | मैं समस्त जीवों का जीवन तथा तपस्वियों का तप हूँ |

Shlok 10

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्‌ ।

बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्‌ ॥

अनुवाद: हे पृथापुत्र! यह जान लो कि मैं ही समस्त जीवों का आदि बीज हूँ, बुद्धिमानों की बुद्धि तथा समस्त तेजस्वी पुरुषों का तेज हूँ |

Shlok 11

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्‌ ।

धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥

अनुवाद: मैं बलवानों का कामनाओं तथा इच्छा से रहित बल हूँ | हे भरतश्रेष्ठ! मैं वह काम हूँ, जो धर्म के विरुद्ध नहीं है |

Shlok 12

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्चये ।

मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥

अनुवाद: तुम जान लो कि मेरी शक्ति द्वारा सारे गन प्रकट होते हैं, चाहे वे सतोगुण हों, रजोगुण हों या तमोगुण हों | एक प्रकार से मैं सब कुछ हूँ, किन्तु हूँ स्वतंत्र | मैं प्रकृति के गुणों के अधीन नहीं हूँ, अपितु वे मेरे अधीन हैं |

Shlok 13

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्‌ ।

मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्‌ ॥

अनुवाद: तीन गुणों (सतो, रजो तथा तमो ) के द्वारा मोहग्रस्त यह सारा संसार मुझ गुणातीत तथा अविनाशी को नहीं जानता |

Shlok 14

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥

अनुवाद: प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है | किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं |

Shlok 15

न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।

माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥

अनुवाद: जो निपट मुर्ख हैं, जो मनुष्यों में अधम हैं, जिसका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करने वाले हैं, ऐसे दृष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते |

Shlok 16

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥

अनुवाद: हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते हैं – आर्त, जिज्ञासु, अथार्थी तथा ज्ञानी |

Shlok 17

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।

प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥

अनुवाद: इनमे से जो परमज्ञानी है और शुद्धिभक्ति में लगा रहता है, वह सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि मैं उसे अत्यंत प्रिय हूँ और वह मुझे प्रिय है |

Shlok 18

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्‌ ।

आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्‌ ॥

अनुवाद: निसंदेह ये सब उदारचेता व्यक्ति हैं, किन्तु जो मेरे ज्ञान को प्राप्त है, उसे मैं अपने ही समान मानता हूँ | वह मेरी दिव्यसेवा में तत्पर रहकर मुझ सर्वोच्च उदेश्य को निश्चित रूप से प्राप्त करता है |

Shlok 19

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥

अनुवाद: अनेक जन्म जन्मांतर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ होता है |

Shlok 20

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।

तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥

अनुवाद: जिनकी बुद्धि भौतिक इच्छाओं द्वारा मारी गयी है, वे देवताओं की शरण में जाने हैं और वे अपने अपने स्वभाव के अनुसार पूजा के विशेष विधि विधानों का पालन करते है |

Shlok 21

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।

तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्‌ ॥

अनुवाद: मैं प्रत्येक जीव के हृदय में परमात्मा स्वरूप स्थित हूँ | जैसे ही कोई किसी देवता की पूजा करने की इच्छा करता है, मैं उसकी श्रद्धा को स्थिर करता हूँ, जिससे वह उसी विशेष देवता की भक्ति कर सके |

Shlok 22

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।

लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्‌ ॥

अनुवाद: ऐसी श्रद्धा से सम्वनित वह देवता विशेष की पूजा करने का यत्न करता है और अपनी इच्छा की पूर्ति करता है | किन्तु वास्तविक तो यह है की ये सारे लाभ केवल मेरे द्वारा प्रदत्त हैं |

Shlok 23

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्‌ ।

देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥

अनुवाद: अल्पबुद्धि वाले व्यक्ति देवताओं की पूजा करते हैं और उन्हें प्राप्त होने वाले फल सीमित तथा क्षणिक होता है | देवताओं की पूजा करने वाले देवलोक को जाते हैं, किन्तु मेरे भक्त अंततः मेरे परमधाम को प्राप्त होते हैं |

Shlok 24

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।

परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्‌ ॥

अनुवाद: बुद्धिहीन मनुष्य मुझको ठीक से न जानने के कारण सोचते हैं कि मैं (भगवान् कृष्ण ) पहले निराकार था और अब मैंने इस स्वरूप को धारण किया है | वे अपने अल्पज्ञान के कारण मेरी अविनाशी तथा सर्वोच्च प्रकृति को नहीं जान पाते |

Shlok 25

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।

मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्‌ ॥

अनुवाद: मैं मूर्खो तथा अल्पज्ञों के लिए कभी भी प्रकट नहीं हूँ | उनके लिए तो मैं अपनी अंतरंगा शक्ति द्वारा आच्डित रहता हूँ, अतः वे यह नहीं जान पाते कि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ |

Shlok 26

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।

भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥

अनुवाद: हे अर्जुन! श्रीभगवान होने के नाते मैं जो कुछ भूतकाल में घटित हो चूका है, जो वर्तमान में घटित हो रहा है और जो आगे होने वाला है, वह सब कुछ जानता हूँ | मैं समस्त जीवों को भी जानता हूँ, किन्तु मुझे कोई नहीं जानता |

Shlok 27

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥

अनुवाद: हे भारतवंशी! हे शत्रुविजेता! समस्त जीव जन्म लेकर इच्छा तथा घृणा से उत्पन्न द्वन्द्वो से मोहग्रस्त होकर मोह को प्राप्त होते है |

Shlok 28

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्‌ ।

ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥

अनुवाद: जिन मनुष्योँ ने पूर्वजन्मों में तथा इस जन्म में पुण्यकर्म किये हैं और जिनके पापकर्मो का पूर्णतया उच्छेदन हो चूका होता है, वे मो के द्वन्दों से मुक्त हो जाते हैं और वे संकलपुर्वक मेरी सेवा में तत्पर होते हैं |

Shlok 29

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।

ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्‌ ॥

अनुवाद: जो जरा तथा मृत्यु से मुक्ति पाने के लिए यत्नशील रहते हैं, वे बुद्धिमान व्यक्ति मेरी भक्ति की शरण ग्रहण करते हैं | वे वास्तव में ब्रम्हा हैं क्योंकि वे दिव्य कर्मो के विषय में पूरी तरह से जानते हैं |

Shlok 30

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।

प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥

अनुवाद: जो मुझ परमेश्वर को मेरी पूर्ण चेतना में रहकर मुझे जगत का, देवताओं का तथा समस्त यञविधियों का नियामक जानते हैं, वे अपनी मृत्यु के समय भी मुझ भगवान् को जान और समझ सकते हैं |

निष्कर्ष (Conclusion)

भगवद गीता का अध्याय 7 (Bhagwat Geeta Adhyay 7) हमें यह सिखाता है कि हम अपने जीवन की कठिनाइयों का समाधान आत्म-साक्षात्कार, आत्म-नियंत्रण, और निष्काम कर्म के माध्यम से पा सकते हैं। गीता के उपदेश हमें मानसिक शांति और स्थिरता प्रदान करते हैं, जिससे हम अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए जीवन की चुनौतियों का सामना कर सकते हैं। वर्तमान समय में इस ज्ञान को साझा करना महत्वपूर्ण है, ताकि अधिक से अधिक लोग अपने जीवन को उद्देश्यपूर्ण और अर्थपूर्ण बना सकें। भगवद गीता का ज्ञान हमें न केवल व्यक्तिगत शांति और समाधान प्रदान करता है, बल्कि हमें समाज और संसार के प्रति सकारात्मक योगदान देने के लिए प्रेरित भी करता है।

भगवद गीता हिंदी (bhagwat geeta gyan in hindi) का यह सातवाँ अध्याय हमें सिखाता है कि आत्म-संयम और ध्यान के माध्यम से ही सच्चे आत्मज्ञान की प्राप्ति संभव है।

आने वाले ब्लॉग में हम भगवद गीता अध्याय 8 की महत्वपूर्ण शिक्षाओं और उनके आधुनिक जीवन में उपयोगिता पर चर्चा करेंगे।

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