Man ki Shanti (मन की शांति) | Episode 5

मन की शांति (Man ki Shanti)

सुदर्शन उर्फ़ भगत जी का भगवत गीता ज्ञान ब्लॉग लोगो के बीच काफी पॉपुलर हो गया था | यह ब्लॉग कोई उपदेश देने वाले बाबा जी के उपदेशो का कलेक्शन नहीं था, ना ही किसी तंत्र मंत्र से आपके जीवन की प्रोब्लेम्स को हल करने की बात कहता था | यहाँ भगत जी सीधे सरल शब्दों में श्री मदभागवत गीता के श्लोको का अर्थ और उन्हें किस तरह असल जिंदगी में उतारा जाये, ये बताते थे |

पढ़ने वाले उनसे बहस भी करते थे, की यहा पर ऐसा क्यों कहा गया है, वैसा क्यों कहा गया है? या ये असल जिंदगी में मुमकिन है ही नहीं | भगत जी हर सवाल का स्वागत करते क्योकि सवालो से जवाबो के रस्ते खुलते है | कई बार सवाल हमे उस जवाब तक ले जाते है जिसे हम ना तो पहले सोच पा रहे थे, ना किसी बात को देखने का ऐसा नजरिया बना पा रहे थे |

ऐसा नहीं था भगत जी गीता ज्ञान सिर्फ उनके ब्लॉग तक ही सीमित था, अभी भी अपने दोस्तों के बीच सुबह शाम की सेर, या हर शाम पार्क में जमने वाली बैठक में वे आध्यात्मिक बहस कर लेते थे | वहा भी उन सब में अक्सर मतभेद होते लेकिन मनभेद कभी नहीं |

भगत जी के दोस्तों में एक वर्मा साहब भी थे, उनका शहर में खूब बड़ा कपडे का बिज़नेस था, जिसे अब उनके बेटे सँभालते थे | वर्मा साहब ने तो खुद को अब पूजा पाठ, दान पुण्य तक ही सिमित कर लिया था, शहर की कोई धर्मशाला, कोई मंदिर, कोई सरकारी स्कूल ऐसा नहीं था जहा वर्मा साहब की दान की हुई चीज ना हो |

यह कैसे पता चलेगा की कोई चीज वर्मा साहब ने दी है?

तो उसके लिए वाटरकूलर, पंखे वगरैह दान की हुई चीजों पर हर दानी की तरह उसका नाम जो लिखा रहता था | रोज शाम की बैठक में वर्मा साहब अपने दान-पुण्य की बाते करते ऐसा करने के पीछे शायद उनका कोई स्वार्थ ना हो बस आदत थी तो कर देते थे | लेकिन बाकि के बुजुर्गो को ऐसा महसूस होता की वे अपने अगले जन्म के लिए कुछ भी पुण्य नहीं कमा पा रहे है |

अब सब लोग वर्मा साहब के तरह पैसे वाले तो है नहीं, अभी भी घर की जिम्मेदारियों से घिरे हुए है और दान तो कोई तब करें जब फॅमिली की जरूरते पूरी हो | वर्मा शाहब की कहानी भी बहुत दिलचस्प थी ऐसा नहीं था की उन्हें ये सब विरासत में मिला हो, उनके पिता की एक बड़े चौराहे पर एक छोटी सी किराना की दुकान थी और परिवार बड़ा था | तो बस गुजर बसर करने वाले हालात थे |

वर्मा साहब का मन कभी पढाई में लगा ही नहीं। उन्हें तो बाजार की चहल पहल आकर्षित करती थी | पिता की दुकान पर बैठना उन्हें कभी रास नहीं आय आया, लेकिन मजबूरी थी पिता ने साफ़ कह दिया था या तो या तो पढाई करो वार्ना दुकान सम्भालो | वर्मा साहब छोटी सी उम्र से दुकानदारी करने लगे है |

अब २० साल के युवक हो गए है और जिंदगी घर और दुकान के बीच ठीक ठाक ही चल रही थी की एक दिन अचानक उनके पिता चल बसे | तब जाके वर्मा साहब को एहसास हुआ की कैसे पिता पूरे परिवार को बांधे हुए थे, उनके बाकि भाई तो पढाई में व्यस्थ थे और उनके सरे पढाई के खर्चे उस छोटी सी दुकान पर ही निर्भर करते थे |

इस तरह छोटी सी उम्र में एक तरह से पूरे परिवार की जिम्मेदारी वर्मा साहब पर आगयी और काम उम्र पर पड़े बौझ ने उन्हें वक्त से पहले ही समझदार बना दिया था | अपनी मेहनत और बिज़नेस माइंड के दम पर वर्मा साहब ने एक छोटी सी दुकान से इस शहर के सबसे बड़े कपडा व्यापारी तक का सफर तय किया था | आज उनके बेटो के पास सफल कारोबार है जिसकी नीव उनके पिता की पसीने की नमी थी |

भगत जी हमेशा एक बात पर गौर करते की तमाम पूजा पाठ, और दान पुण्य के बाद भी जीवन के सारे सुख और सम्मान होने बाद भी वर्मा साहब के चहरे पर सुकून गायब रहता, जो असल में होना चाहिए था | हालांकि वो उनसे कभी पूछने की हिम्मत कर नहीं पाए, क्युकी किसी से खांसी बुखार की बात पूछना अलग बात है लेकिन उनके बिना कहे चेहरे से झांकती टेंशन का जिक्र करना, क्या पता सामने वाले को अच्छा ना लगे |

धीरे धीरे वर्मा साहब ने पार्क में आना बंद कर दिया, पूछो तो बताते तबियत थोड़ी सही नहीं लगती इसीलिए नहीं आ पाते थे | सबकी तरह भगत जी इसे भी उम्र का खेल समझा, लेकिन ये खेल कुछ और ही था जिसका पता भगत जी को जल्द चलने वाला था | एक हफ्ते तक वर्मा साहब पार्क नहीं आये तब मित्र मण्डली ने सोचा क्यों ना उनके घर चला जाये, उनका हाल पूछा जाये | जिसके पास जब समय था, उनके घर मिलने गया, समय निकाल कर भगत जी भी गए और वहा जाकर फिर उन्हें वोही एहसास हुआ की वर्मा साहब को शरीर नहीं मन की परेशानी थी, जिसे वो किसी से भी बाँट नहीं रहे थे |

थोड़ा एकांत मिलने पर आखिर भगत जी ने वर्मा साहब से पूछ ही लिया, की उनकी बेसूकूनी की वजह क्या है? क्यों हेमशा उनका मन अशांत सा लगता है? क्या इसके पीछे परिवार या कारोबार की कोई समस्या है? वर्मा साहब जैसे किसी के इस तरह के सवाल पूछने के इंतज़ार में ही थे और भगत जी के प्रति उनके मन में बड़ा सम्मान था ही | जानते थे भगत जी बहुत सुलझे हुए इंसान है, सबके मन को समझने वाले, समझाने वाले भी है |

मेरा मन हमेशा अशांत रहता है में कितने भी पूजा पाठ करू, दान पुण्य करू लेकिन मुझे शांति नहीं मिलती | मुझे हर वक्त यही लगता है मुझसे कुछ छूट रहा है मेरी पूजा ईश्वर तक पहुंच नहीं रही है, दान मेरे अगले जनम के पुण्य में नहीं बदल रहे है और में सब कुछ करते हुए भी कुछ नहीं कर पा रहा हूँ |

भगत जी ने एक लम्बी साँस भरी और गीता का ये श्लोक पढ़ा |

श्री मदभागवत गीता का श्लोक

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥

इस श्लोक में भगवन श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है की जो मनुष्य सभी इच्छाओं और कामनाओं को त्याग कर ममता रहित और अहंकार रहित हो कर अपने कर्तव्यों का पालन करता है उसे ही शांति प्राप्त होती है |

अब सरल शब्दों में इसका मतलब सुनो||

जब हम कोई भी काम करते है, चाहए वो अपना रोजमर्रा का काम हो या किसी की मदद करने जैसा काम, यदि हम किसी भी तरह के स्वार्थ या अहंकार से भर कर करते है तब हमे उस काम का सुकून नहीं मिल पता | अब हम जैसे किसी की मदद करना चाहते है, देखा जाये तो ये बहुत अच्छा विचार है लेकिन इसके साथ ही हम ये भी सोचते है की हमारी वाह वही हो, इस मदद या दान के बदले हमे पुण्य मिले, हमारे पाप कटे | तब हम निस्वार्थ भावना से दान नहीं कर रहे |

इसीलिए हो सकता है हमे पुण्य तो मिल जाये लेकिन सुकून ना मिले, ये रूल जीवन के हर काम पर लागू होता है अपने बच्चो को भी अपनी इन्वेस्टमेंट नहीं समझना चाइये, की, आज हम इन्हे अच्छे से पालेँगे तो कल ये हमारी देख रेख करेंगे | उनकी अच्छी परवरिश हमारी ड्यूटी है, हम दान करते है क्युकी हम काबिल है लेकिन उसके बदले ये उम्मीद रखना की हमारा प्रचार होगा, घमंड की निशानी है और ईश्वर उस हृदय में वास नहीं करते जहां घमंड हो|

इसी तरह उस हृदय में सुकून को भी जगह नहीं मिलती, अपना कोई काम करना किसी की मदद करना हमारा फ़र्ज़ है, इसे पूरा करना हर किसी की जिम्मेदारी है | इसके बदले कुछ मिलने की अपेक्षा रखना गलत है |

वर्मा साहब आपने जीवन भर मेहनत की, आपको लगता है की आपके परिवार को आपके प्रति आभारी होना चहिए? वे होंगे भी, लेकिन इस एहसान का शुक्रिया वे एक समय के बाद बंद कर देंगे लेकिन आप हमेशा उनसे यह सुनना चायेंगे | ऐसा ना होने पर आपको दुःख होगा जबकि देखा जाये तो अपने किसी पर कोई एहसान नहीं किया |

आपने जो किया परिवार का सदस्य होने के नाते आपका कर्तव्य था, हर कोई अपने परिवार और समाज के प्रति इसी तरह अपने कर्तव्य निभाते है | आप पूजा पाठ करते है, ये भी भगवन के प्रति हमारा फ़र्ज़ ही है | जिसने हमे मनुष्य के रूप में जन्म दिया और धरती के सभी सुख भोगने का अवसर दिया | अपनी पूजा का प्रदर्शन करके भी हम उस सुख से हाथ धो बैठते है |

इसलिए कोई भी काम बिना घमंड के किया जाना चहिये तब मन पर किसी तरह का बोझ नहीं होता | हम जानते है की हमने अपना काम अच्छे से किया है बाकि उसका फल जो भी मिले, उसे ईश्वर और किस्मत पर छोड़ देना चहिये |

वर्मा साहब को अब समझ में आ रहा था की कहीं ना कहीं उन्होंने आज तक जो भी किया उसमे उनका एक स्वार्थ जरूर रहा, लोगो द्वारा उनकी कोशिश को स्वीकारे जाने, उनका गुणगान किये जाने की इच्छा रही और कही इसमें कोई कमी दिखी तो उनके मन का सुकून छिन गया |

गीता ज्ञान ने मेरी आंखे खोल दी है, मुझे समझ आ गया है की शांति की राह बिना किसी अहंकार और बिना किसी स्वार्थ के किये काम में है |

उनके चेहरे पर थोड़ा सुकून झलकने लगा था, देर ये दुरुस्त आये वाला सुकून | भगत जी भी खुश थे की आज गीता ज्ञान के कारण एक और मन को जीवन का सही रास्ता मिल गया | उन्होंने मन ही मन भगवन श्री कृष्ण और श्री मदभागवत गीता को प्रणाम किया और मुस्कुराते हुए अपने घर की और निकल पड़े |

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